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________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ३२ जिनदास महत्तर (वि० ७वीं शताब्दी )। मुनि श्री पुण्यविजयजी के अनुसार अगस्त्यसिंह की चूणि का रचना-काल विक्रम को तीसरी शताब्दी के आस-पास है।' - अगस्त्यसिंह स्थविर ने अपनी चूणि में तत्वार्थसूत्र, आवश्यक नियुक्ति, ओघ नियुक्ति, व्यवहार भाष्य, कल्प भाष्य आदि ग्रन्थ का उल्लेख किया है। इनमें अन्तिम रचनाएँ भाष्य हैं। उनके रचना-काल के आधार पर अगस्त्यसिंह का समय पुनः अन्वेषणीय है। .. - अगस्त्यसिंह ने पुस्तक रखने की औत्सगिक और आपवादिक- दोनों विधियों की चर्चा की है। इस चर्चा का आरम्भ देवद्विगणी ने आगम पुस्तकारूढ़ किए तब या उनके आस-पास हुआ होगा । अगस्त्यसिंह यदि देवद्धिगणी के उत्तरवर्ती और जिनदास के पूर्ववर्ती हों तो इनका समय विक्रम की पांचवीं-छठी शताब्दी हो जाता है । ... इन चूणियों के अतिरिक्त कोई प्राक त व्याख्या और रही है पर वह अब उपलब्ध नहीं है। उसके अवशेष हरिभद्रसूरि की टीका में मिलते हैं। . प्राक त युग समाप्त हुआ और संस्कृ त युग आया। आगम की व्याख्याएँ संस्कृत भाषा में लिखी जाने लगीं। इस पर हरिभद्रसूरि ने संस्कृत में टीका लिखी। इनका समय विक्रम की आठवीं शताब्दी है। यापनीय संघ के अपराजितसुरि ( या विजयाचार्य-विक्रम की आठवीं शताब्दी ) ने इस पर 'विजयोदया' नाम की टीका लिखी। इसका उल्लेख उन्होंने स्वरचित आराधना की टीका में किया है । परन्तु वह अभी उपलब्ध नहीं है। हरिभद्रसूरि की टीका को आधार मान कर तिलकाचार्य (१३-१४ वीं शताब्दी ) ने टीका, माणिक्यशेखर (१५ वीं शताब्दी) ने नियुक्ति-दीपिका तथा समयसुन्दर (विक्रम १६११) ने दीपिका, विनयहंस (विक्रम १५७३) ने वृत्ति, रामचन्द्रसूरि (विक्रम १६७८) ने वातिक और पायचन्द्रसूरि तथा धर्मसिंह मुनि (विक्रम १८ वीं शताब्दी) ने गुजराती-राजस्थानी-मिश्रित भाषा में टब्बा लिखा । किन्तु इनमें कोई उल्लेखनीय नया चिन्तन और स्पष्टीकरण नहीं है। वे सब सामयिक उपयोगिता की दृष्टि से रचे गए हैं। इसकी महत्वपूर्ण व्याख्याएँ तीन ही हैं . दो पूणियाँ और तीसरी हरिभद्रसूरि की वृत्ति। ___अगस्त्यसिंह स्थविर की चूणि इन सबमें प्राचीनतम है इसलिए वह सर्वाधिक मूल-स्पर्शी है । जिनदास महत्तर अगस्त्यसिंह स्थविर के आस-पास भी चलते हैं और कहीं-कहीं इनसे दूर भी चले जाते हैं। टीकाकार तो कहीं-कहीं बहुत दूर चले जाते हैं। इनका उल्लेख यथास्थान टिप्पणियों में किया गया है। .. लगता है चूणि के रचना-काल में भी दशवैका लिक की परम्परा अविच्छिन्न नहीं रही थी। अगस्त्यसिंह स्थविर ने अनेक स्थलों पर अर्थ के कई विकल्प किए हैं। उन्हें देखकर सहज ही जान पड़ता है कि वे मूल अर्थ के बारे में असंदिग्ध नहीं हैं। आर्य सुहस्ती ने इस बार जो आचारशैथिल्य की परम्परा का सूत्रपात किया वह आगे चल कर उग्र बन गया। ज्यों-ज्यों जैन आचार्य लोक-संग्रह की ओर अधिक झुक त्यों-त्यों अपवादों की बाढ़ सी आ गई। वीर निर्वाण की नवीं शताब्दी ८५० में चैत्य-वास का प्रारम्भ हुआ। इसके बाद शिथिलाचार की परम्परा बहुत ही उग्र हो गई। देवद्धिगणी क्षमाश्रमण (वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी) १-बृहत्कल्प भाष्य, भाग ६, आमुख पृ०४।। २- दशवकालिक १११ अगस्त्य चूणि पृ० १२ : उवगरणसंजमो-पोत्थएसु घेप्पतेसु असंजमो महाधणमोल्लेसु वा दूसेसु, वज्जणं तु संजमो, कालं पडुच्च चरणक रण? अव्वोछितिनिमित्तं गेण्हंतस्स संजमो भवति । ३--हा० टी० ५० १६५ : तथा च वृद्धव्याख्या-वेसादिगयभावस्स मेहुणं पीडिज्जइ, अणुवओगेणं एसणाकरणे हिसा, पडुप्पायणे - अन्नपुच्छणअवलवणाऽसच्चवयणं, अणणुण्णायवेसाइदंसणे अदत्तादाणं, ममत्तकरणे परिग्गहो, एवं सव्ववयपीडा, दव्वसामन्ने पुण संसयो उण्णिक्खमणे ति। जिनदास चूणि (पृ० १७१) में इन आशय की जो पंक्तियां है, वे इन पंक्तियों से भिन्न हैं। जैसे- 'जइ उणिक्खमइ तो सव्ववया पोडिया भवंति, अहवि ण उण्णिक्खमइ तोवि तग्गयमाणसस्स भावओ मेहुणं पीडियं भवइ, तग्गयमाणसो व एसणं न रक्खद, तत्थ पाणाइवायपीडा भवति, जोएमाणो पुच्छिज्जइ-कि जोएसि? ताहे अवलवइ, ताहे मुसावायपीडा भवति, ताओ य तित्थगरेहि णाणुण्णायाउत्तिकाउं अदिण्णादाणपीडा भवइ, तासु य ममत्तं करेंतस्स परिग्गहपीडा भवति ।' - अगस्त्य चूणि पृ० १०२ को पंक्तियां इस प्रकार हैं-चागविचित्तीक तस्स सव्वमहव्वतपीला, अह उप्पवतति ततो वयच्छित्ती, अणुपव्वयतस्स पीडा वयाण, तासु गयचित्तो रियं ण सोहेत्तित्ति पाणातिवातो। पुच्छितो कि जोएसित्ति ? अवलवति मुसावातो, अदत्तादाणमणणुण्णातो तित्थकरेहि मेहुणे विगयभावो मुच्छाए परिग्गहो वि । ४–गाथा ११९७ की वृत्ति : दशवकालिकटीकायां श्री विजयोदयायां प्रपंचिता उद्गमादिदोषा इति नेह प्रतन्यते । Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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