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भूमिका
के बाद चैत्यवास का प्रभुत्व बढ़ा और वह जैन परम्परा पर छा गया । अभयदेवसूरि ने इस स्थिति का चित्रण इन शब्दों में किया है - 'देवद्धिगणी क्षमाश्रमण तक की परम्परा को मैं भाव-परम्परा मानता हूँ। इसके बाद शिथिलावारियों ने अनेक द्रव्य-परम्पराओं का प्रवर्तन कर दिया ।" भाचार-शैथिल्य की परम्परा में जो ग्रन्थ लिखे गये, उनमें ऐसे अपवाद भी हैं जो आगम में प्राप्त नहीं हैं। प्रस्तुत आगम की चूणि और टीका तात्कालिक वातावरण से मुक्त नहीं है। इन्हें पढ़ते समय इस तथ्य को नहीं भूल जाना चाहिए।
उत्सर्ग की भांति अपवाद भी मान्य होते हैं। पर उनकी भी एक निश्चित सीमा है। जिनका बनाया हुआ आगम प्रमाण होता है उन्हीं के किए हुए अपवाद मान्य हो सकते हैं। वर्तमान में जो व्याख्याएँ उपलब्ध हैं, वे चतुर्दशपूर्वी या दशपूर्वी की नहीं हैं इसलिए उन्हें आगम (अर्थागम) की कोटि में नहीं रखा जा सकता।
दोनों चूणियों में पाठ और अर्थ का भेद है । टीकाकार का मार्ग तो उनसे बहुत ही भिन्न है।
चैत्यवासी और संविग्न-पक्ष के आपसी खिंचाव के कारण संभव है उन्हें (टीकाकार को) अगस्त्य चणि उपलब्ध न हुई हो। उसके उपलब्ध होने पर भी यदि इतने बड़े पाठ और अर्थ के भेदों का उल्लेख न किया हो तो यह बहुत बड़े आश्चर्य की बात है। पर लगता यही है कि टीका-काल में टीकाकार के सामने अगस्त्यसिंह चूणि नहीं रही । यदि वह उनके सम्मुख होती तो टीका और चूणि में इतना अर्थ-भेद नहीं होता। टीकाकार ने 'अन्ये तु', 'तथा च वृद्धसम्प्रदाय', 'तथा च वृद्धव्याख्या' आदि के द्वारा जिनदास महत्तर का उल्लेख किया है पर उनके नाम और चूणि का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया।
हरिभद्रसूरि संविग्न-पाक्षिक थे । इनका समय चैत्यवास के उत्कर्ष का समय है। पुस्तकों का संग्रह अधिकांशतया चैत्यवासियों के पास था। संविग्न पक्ष एक प्रकार से नया था। चैत्यवासी इसे मिटा देना चाहते थे। इस परिस्थिति में टीकाकार को पुस्तक-प्राप्ति की दुर्लभता रही हो, यह भी आश्चर्य की बात नहीं है।
आगमों की माथुरी और वल्लभी ---ये दो वाचनाएँ हुईं। देवद्धिगणी ने अपने आगमों को पुस्तकारूढ़ करते हुए उन दोनों का समन्वय किया । माथुरी में उससे भिन्न पाठ थे। उन्हें पाठ-भेद मान शेष अंश को वल्लभी में समन्वित कर दिया। यह पाठ-भेद की परम्परा मिटी नहीं। कुछ आगमों के पाठ-भेद केवल आगमों की व्याख्याओं में उपलब्ब हैं । व्याख्याकार -- "नागार्जुनीयास्तु एवं पठन्ति" लिखकर उसका निर्देश करते रहे हैं और कुछ आगमों के पाठ-भेद मूल से ही सम्बद्ध रहे, इस कारण से उनका परम्परा-भेद चलता ही रहा । दशवकालिक सम्भवत: इसी दूसरी कोटि का आगम है। इसकी उपलब्ध व्याख्याओं में सबसे प्राचीन व्याख्या अगस्त्य चूर्णि है। उसमें अनेक स्थलों पर परम्परा-भेद का उल्लेख है। इस सारी वस्तु-सामग्री को देखते हुए लगता है कि चूर्णिकार और टीकाकार के सामने भिन्न-भिन्न परम्परा के आदर्श रहे हैं, और टीकाकार ने अपनी परम्परा के आदर्श और व्याख्या-पद्धति को महत्व दिया हो और सम्भव है कि परम्परा-भेद के कारण चू णियों की उपेक्षा की हो। कल्पना की इस भूमिका पर पहुंचने के बाद चू णि और टीका के पाठ और अर्थ के भेद की पहेली सुलझ जाती है।
अनुवाद और सम्पादन हमने वि० सं० २०१२ औरंगाबाद में महावीर-जयन्ती के अवसर पर जैन-आगमों के हिन्दी अनुवाद और सम्पादन के निश्चय की घोषणा की। उसी चातुर्मास (उज्जैन) में आगमों की शब्द-सूची के निर्माण से कार्य का प्रारम्भ हुआ। साथ-साथ अनुवाद का कार्य प्रारम्भ किया गया। उसके लिए सबसे पहले दशवैकालिक को चुना गया।
लगभग सभी स्थलों के अनुवाद में हमने चूणि और टीका का अवलम्बन लिया है फिर भी सूत्र का अर्थ मूल-स्पर्शी रहे, इस लिए हमने व्याख्या-ग्रन्थों की अपेक्षा मूल आगमों का आधार अधिक लिया है । हमारा प्रमुख लक्ष्य यही रहा है कि आगमों के द्वारा
१-देवढिखमासपणजा, परंपरं भावओ वियाणेमि ।
सिढिलायारे ठविया, दम्वेण परंपरा बहुहा । २-(क) हा० टी०प०७; जि० चू० पृ० ४ : 'अन्ये तु'।
(ख) हा० टी०५० १७१, जि० चू० पृ० १८० : 'एवं च वृद्धसम्प्रदायः' ।
(ग) हा० टी०प० १४२, १४३ जि० चू० पृ. १४१-१४२ : 'तथा च वृद्धव्याख्या' । ३-उदाहरण स्वरूप देखें-पांचवें अध्यमन (प्रथम उद्देशक) का टि० २६ तथा ६।५४ का टिप्पण।
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