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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ही आगमों की व्याख्या की जाए। आगम एक दूसरे से गुंथे हुए हैं। एक विषय कहीं संक्षिप्त हुआ है तो कहीं विस्तृत । दशवकालिक की रचना संक्षिप्त शैली की है । कहीं-कही केवल संकेत मात्र है। उन सांकेतिक शब्दों की व्याख्या के लिए आयारचूला और निशीथ का उपयोग न किया जाये तो उनका आशय पकड़ने में बड़ी कठिनाई होती है। इस कटिनाई का सामना टीकाकार को करना पड़ा। निदर्शन के लिए देखिए ५।१।६६ की टिप्पणी । दशवकालिक की सर्वाधिक प्राचीन व्याख्याग्रन्थ चरिण है। उसमें अनेक स्थलों पर वैकल्पिक अर्थ किए हैं। वहाँ चूर्णिकार का बौद्धिक विकास प्रस्फुटित हुआ है पर वे यह बताने में सफल न हो सके कि यहाँ सूत्रकार का निश्चित प्रतिपाद्य क्या है । उदाहरण के लिए देखिए ३।६ के उत्तरार्द्ध की टिप्पणी। ____ अनुवाद को हमने यथासम्भव मूल-स्पर्शी रखने का यत्न किया है। उसका विशेष अर्थ टिप्पणियों में स्पष्ट किया है। व्याख्याकारों के अर्थ -भेद टिप्पणियों में दिए हैं। कालक्रम के अनुसार अर्थ कसे परिवर्तित हुआ है, हमें बताने की आवश्यकता नहीं हुई क्योंकि इसका इतिहास ब्याख्या की पंक्तियां स्वयं बता रही हैं। कहीं-कहीं वैदिक और बौद्ध साहित्य से तुलना भी की है। जिन सूत्रों का पाठसंशोधन करना शेष है, उनके उद्धरणों में सूत्रांक अन्य मुद्रित पुस्तकों के अनुसार दिए हैं। इस प्रकार कुछ-एक रूपों में यह कार्य सम्पन्न होता है। यह प्रयत्न क्यों ? दशवकालिक की अनेक प्राचीन व्याख्याएँ हैं और हिन्दी में भी इसके कई अनुवाद प्रकाशित हो, चुके हैं फिर नया प्रयल क्यों आवश्यक हुआ ? इसका समाधान हम शब्दों में देना नहीं चाहेंगे । वह इसके पारायण से ही मिल जाएगा। सूत्र-पाठ के निर्णय में जो परिवर्तन हुआ है ---कुछ श्लोक निकले हैं और कुछ नए आए हैं, कहीं शब्द बदले हैं और कहीं विभक्ति --- उसके पीछे एक इतिहास है । 'धूवणेत्ति वमणे य' (३६) इसका निर्धारण हो गया था। 'धूवर्ण' को अलग माना गया और 'इति' को अलग। उत्तराध्ययन (३५।४) में धूप से सुवासित घर में रहने का निषेध है। आयारचूला (१३।६) में धूपन-जात से पैरों को धूपित करने का निषेध है। इस पर से लगा कि यहाँ भी उपाश्रय, शरीर और वस्त्र आदि के धूप खेने को अनाचार कहा है। अगस्त्य चूणि में वैकल्पिक रूप में 'धूवणेत्ति' को एक शब्द माना भी गया है, पर उस ओर ध्यान आकृष्ट नहीं हुआ। एक दिन इसी सिलसिले में चरक का अवलोकन चल रहा था। प्रारम्भिक स्थलों में 'घूमनेत्र' शब्द पर ध्यान टिका और धूवणेत्ति' शब्द फिर आलोचनीय बन गया। उत्तराध्ययन के 'धूमणेत्त' की भी स्मृति हो आई । परामर्श चला और अन्तिम निर्णय यही हुआ कि 'घुवणे त्ति' को एक पद रखा जाए। फिर सूत्रकृतांग में ‘णो धूमणेत्तं परियापिएज्जा' जैसा स्पष्ट पाठ भी मिल गया। इस प्रकार अरेक शब्दों की खोज के पीछे घटनाएँ जुड़ी हुई हैं। अर्थ-चिन्तन में भी बहुधा ऐसा हुआ है। मौलिक अर्थ को ढूंढ निकालने में तटस्थ दृष्टि से काम किया जाए, वहाँ साम्प्रदायिक आग्रह का लेश भी न आए—यह दृष्टिकोण कार्यकाल के प्रारम्भ से ही रखा गया और उसका पूर्ण सुरक्षा भी हुई है। परम्परा-भेद के स्थलों में कुछ अधिक चिन्तन हो, यह स्वाभाविक है । 'नियाग' का अर्थ करते समय हमें यह अनुभव हुआ। 'नियाग' का अर्थ हमारी परम्परा में एक घर से नित्य आहार लेना किया जाता है। प्राचीन सभी व्याख्याओं में इसका अर्थ-निमंत्रण पूर्वक एक घर से नित्य आहार लेना' मिला तो वह चिन्तन-स्थल बन गया। हमो प्रयत्न किया कि इसका समर्थन किसी दूसरे स्रोत से हो जाए तो और अच्छा हो। एक दिन भगवती में 'अनाहूत' शब्द मिला । वृत्तिकार ने उसका वही अर्थ किया है, जो दशवकालिक की व्याख्याओं में 'नियाग' का है। श्रीमज्जयाचार्य की 'भगवती की जोड़' (पद्यात्मक व्याख्या) को देखा तो उसमें भी यही अर्थ मिला। फिर 'निमंत्रणपूर्वक' इस वाक्यांश के आगम-सिद्ध होने में कोई सन्देह नहीं रहा। इस प्रकार अनेक अर्थो के साथ कुछ इतिहास जुड़ा हुआ है। हमने चाहा कि दश वैकालिक का प्रत्येक शब्द अर्थ की दृष्टि से स्पष्ट हो-अमुक शब्द वृक्ष-विशेष, फल-विशेष, आसन-विशेष, पात्र-विशेष का वाचक है, इस प्रकार अस्पष्ट न रहे। इस विषय में आज के युग की साधन-सामग्री ने हमें अपनी कल्पना को सफल बनाने का श्रेय दिया है। साधुवाद इस कार्य में तीन वर्ष लगे हैं । इसमें अनेक साधु-साध्वियों व श्रावकों का योगदान है। इसके कुछ अध्ययनों के अनुवाद व टिप्पणियाँ तैयार करने में मुनि मीठालाल ने बहुत श्रम किया है। मुनि दुलहराज ने टिप्पणियों के संकलन व समग्र ग्रन्थ के समायोजन में १. देखिए-नियाग (३२) शब्द का टिप्पण। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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