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________________ दसवेलियं ( दशकालिक ) ३० सर्व प्रथम आचार का ज्ञान कराना आवश्यक होता है और उस समय वह आचारांग के अध्ययन-अध्यापन से कराया जाता था । परन्तु दशकालिक की रचना ने आचार बोध को सहज और सुगम बना दिया और इसीलिए आचारांग का स्थान इसने ले लिया । प्राचीन काल में आचारांग के अन्तर्गत 'शस्त्र-परिज्ञा' अध्ययन को अर्थतः जाने- पढ़े बिना साधु को महाव्रतों की विभागतः उपस्थापना नहीं दी जाती थी, किन्तु बाद में सर्वकालिक मूत्र के नीचे अध्ययन 'पजीवनिका' को अर्थतः जानने-पढ़ने के पश्चात् महावतों की विभागतः उपस्थापना दी जाने लगी । ' प्राचीन परम्परा में आचारांग सूत्र के दूसरे अध्ययन 'लोक विजय' के पांचवें उद्देशक 'ब्रह्मचर्य' के 'आमगन्धं' सूत्र को जाने -पढ़े बिना कोई भी पिण्ड कल्पी (भिक्षाग्राही) नहीं हो सकता था। परन्तु बाद में दशवैकालिक के पांचवें अध्ययन 'पिण्डेषणा' को जानने-पढ़ने वाला पिण्ड - कल्पी होने लगा । दशवैकालिक को महत्व और सर्वग्राहिता को बताने वाले ये महत्वपूर्ण संकेत हैं। निर्यूहण कृति रचना दो प्रकार की होती है और निदशकालिक निकृति है, स्वतंत्र नहीं आचार्य शय्यंभव तवली थे। उन्होंने विभिन्न पूर्वो से इसका निर्यूहण किया - यह एक मान्यता है । 3 दशाक की नियुक्ति के अनुसार चौथा अध्ययन आत्म प्रवाद पूर्व से; पाँचवाँ अध्ययन कर्मप्रवाद पूर्व से; सातवां अध्ययन सत्यप्रवाद पूर्व से और शेष सभी अध्ययन प्रत्याख्यान पूर्व की तीसरी वस्तु से उद्धृत किए गए हैं। दूसरी मान्यता के अनुसार इसका निर्यूहण गणिपिटक द्वादशांगी से किया गया। किस अध्ययन का किस अंग से उद्धरण किया गया. इसका कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। किन्तु तीसरे अध्ययन का विषय सूत्रकृतांग १६ से प्राप्त होता है। चतुर्थ अध्ययन का विषय सूत्रकृतांग १।११।७,८, आचारांग १।१ का क्वचित् संक्षेप और क्वचित् विस्तार है। पांचवें अध्ययन का विषय आचारांग के दूसरे अध्ययन 'लोक विजय' के पाँचवें उद्देशक और आठवें 'विमोह' अध्ययन के दूसरे उद्देशक से प्राप्त होता है। छठा अध्ययन समवायांग १६ के 'वयछक्क कायक्क' इस श्लोक का विस्तार है। सातवें अध्ययन के बीज आचारांग १।६।५ में मिलते हैं। आठवें अध्ययन का आंशिक विषय स्थानांग १ - व्यवहार भाष्य उ० ३ गा० १७५: बितितंमि बंभचेरे पंचम उद्देसे आमगंधमि । सुमि पिकप इह पुण विबेसणाए ओ | मलयगिरि टोका - पूर्वमाचाराङ्गान्तर्गते लोकविजयनाम्नि द्वितीयेऽध्ययने यो ब्रह्मचर्याख्यः पञ्चम उद्ददेशकस्तस्मिन् यदामगन्धिसूत्र' सव्वामगंधं परिच्चयं इति तस्मिन् सूत्रतोऽर्थतश्चाधीते पिण्डकल्पी आसीत् । इह इदानीं पुनर्दशवेकालिकान्तर्गतायां पिण्डेषणायामपि सूत्रतोऽर्थतश्वापीतायां पिण्डकल्पिकः क्रियते सोऽपि च भवति तादृश इति । २ - व्यवहार भाष्य उ० ३ गा० १७४ : पुव्वं सत्यपरिण्णा अधीयपढियाइ होउ उवटूवणा । इच्छिज्जीवणया कि सा उ न होउ उवठवणा ॥ मलयगिरि टीका पूर्व शस्त्रपरिज्ञायामाचाङ्गतायामतो ज्ञातायां पठितायां सूत्रत उपस्थापनादिदानी पुनः सा उपस्थापना हि पदजीवनिकायासिकात पठितायां च न भवति भवत्येवेत्यर्थः । ३- दशवेकालिक नियुक्ति गा० १६-१७ : आयप्पवायपुव्वा निज्जूढा होइ धम्मपन्नत्ती । कम्मप्पवायव्वा पिडस्स उ एसणा तिविहा || सच्चयवायवा निज्जूदा होइ बढी उ अवसेसा निज्जूढा नवमस्स उ तइयवत्थूओ || ४१नि अआएको गणिपिङगाओ बुबालगाओ। एवं फिर निम्बूढं मणगस्स अनुष्ठाए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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