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भूमिका
(५) पिंडैषणा
(६) महाचार - कथा
(७) वाक्यशुद्धि
(5) आचार प्रणिधि (६) विनय-समाधि
(१०) सभिक्ष
पहली चूलिका - रतिवाक्या
दूसरी भूमिका विवि
२६
१५०
६८
५७
६३
श्लोक ६२ तथा सूत्र ७ २१
श्लोक १८ तथा सूत्र १
१६
गवेषणा महाचार का निरूपण ।
भाषा-विवेक ।
(१) चरण- व्रत आदि ।
(२) करण - पिंड - विशुद्धि आदि ।
धवला के अनुसार दशकालिक आचार और गोचर की विधि का वर्णन करने वाला सूत्र है। *
आचार का प्रणिधान । विनय का निरूपण ।
भिक्षु के स्वरूप का वर्णन ।
संयम में अस्थिर होने पर पुनः स्थिरीकरण
का उपदेश ।
विवि
दशवैकालिक विभिन्न आचार्यों की दृष्टि में
निर्मुक्तिकार के अनुसार दशवेकालिक का समावेश वरण करणानुयोग में होता है। इसका फलित अर्थ यह है कि इसका प्रतिपाद्य आचार है। वह दो प्रकार का होता है'
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पणा और भोपा की बुद्धि।
गपत्ति के अनुसार इसका विषय गोचर-विधि और पिड-विशुद्धि है।
तत्त्वार्थ की श्रुतसागरीय वृत्ति में इसे वृक्ष-कुसुम आदि का भेद कथक और यतियों के आचार का कथक कहा है।
उक्त प्रतिपादन से दशर्वकालिक का स्थूल रूप हमारे सामने प्रस्तुत हो जाता है, किन्तु आचार्य शय्यंभव ने आचार-गोचर की प्ररूपणा के साथ-साथ अनेक महत्वपूर्ण विषयों का निरूपण किया है। जीव-विद्या, योग-विद्या आदि के अनेक सूक्ष्म बीज इसमें विद्यमान हैं ।
का उपदेश |
कालिक का महत्व
दशकालिक अति प्रचलित और अति व्यवहुत आगम ग्रन्थ है। अनेक व्याख्याकारों ने अपने अभिमत की पुष्टि के लिए इसे उद्धत किया है।"
१ - दशवेकालिक निर्मुक्ति गाथा ४ : अपुहुत्तपुहुत्ताई' निद्दिसिउं एत्थ होइ अहिगारो । चरण करणाणुओगेण तस्स दारा इमे हुंति ॥ दसवेआलियं आचारगोयर विहिं वण्णेइ ।
इसके निर्माण के पश्चात् श्रुत के अध्ययन क्रम में भी परिवर्तन हुआ है। इसकी रचना के पूर्व आचारांग के बाद उत्तराध्ययन सूत्र पढ़ा जाता था । किन्तु इसकी रचना होने पर दश त्रैकालिक के बाद उत्तराध्ययन पढ़ा जाने लगा । यह परिवर्तन यौक्तिक था। क्योंकि साधु को
२ - धवला - संत प्ररूपणा पृ० १७ :
३ - अंगपण्णत्ति चूलिका गाथा २४ : जदि गोचरस्त विहिं पिंडविसुद्धि व जं परूवेहि ।
दसवेआलिय सुत्तं दह काला जत्थ संवृत्ता ।।
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४- तत्त्वार्थ श्रुतसागरीय वृत्ति पृ० ६७ : वृक्षकुसुमादीनां दशानां भेदकथकं यतीनामाचारकथकञ्च दशवेकालिकम् । ५--- देखें उत्तरा० बृहद् वृत्ति, निशीथ चूर्णि आदि-आदि ।
६ – व्यवहार, उद्देशक ३, भाष्य गाथा १७५ ( मलयगिरि वृत्ति) : आधारस्स उ उवर उत्तरज्झयणाउ आसि पुच्वं तु । दसवेआलिय उर्वार इयाणि कि ते न होंती उ ॥ पूर्वमुत्तराध्ययनानि आचारस्याप्याचारांगस्योपर्यासीरन् इदानों दशवेकालिकस्योपरि पठितव्यानि । किं तानि तथारूपाणि न भवन्ति ? भवन्त्येवेति भावः ।
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