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________________ विणयसमाही (विनय-समाधि) ४४३ अध्ययन ६ (द्वि०प्र०) : श्लोक १२-१३ टि० ६-११ श्लोक १२: त ही महत्त्वपूण अर्थ को बाचन है। अगस्त ९. आचार्य और उपाध्याय की ( आयरियउवज्झायाणं क ) : जैन परम्परा में आचार्य और उपाध्याय का स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । परम्परा एक प्रवाह है । उसका स्रोत सूत्र है। उसकी आत्मा है अर्थ । अर्थ और सूत्र के अधिकारी आचार्य और उपाध्याय होते हैं । अर्थ की वाचना आचार्य देते हैं। उपाध्याय का कार्य है सूत्र की वाचना देना' । स्मृतिकार की भाषा में भी आचार्य और उपाध्याय की सही व्याख्या मिलती है। अगस्त्य चूणि के अनुसार सूत्र और अर्थ से सम्पन्न तथा अपने गुरु द्वारा जो गुरु-पद पर स्थापित होता है, वह आचार्य कहलाता है। जिनदास पूणि के अनुसार सूत्र और अर्थ को जानने वाला आचार्य होता है और सूत्र तथा अर्थ का जानकार हो किन्तु गुरु-पद पर स्थापित न हो वह भी आचार्य कहलाता है । टीका के अनुसार सूत्रार्थ दाता अथवा गुरु स्थानीय ज्येष्ठ-आर्य 'आचार्य' कहलाता है । इन सबका तात्पर्य यही है कि गुरुपद पर स्थापित या अस्थापित जो सूत्र और अर्थ प्रदाता है, वह आचार्य है। इससे गुरु और आचार्य के तात्पर्यार्थ में जो अन्तर है, वह स्पष्ट होता है। १०. शिक्षा ( सिक्खा " ): शिक्षा दो प्रकार की होती है-(१) ग्रहण-शिक्षा और (२) आसेवन-शिक्षा । कर्तव्य का ज्ञान ग्रहण-शिक्षा और उसका आचरण का अभ्यास आसेवन-शिक्षा कहलाता है। श्लोक १३: ११. शिल्प ( सिप्पा ख ) : कारीगरी । स्वर्णकार, लोहकार, कुम्भकार आदि का कर्म । १-ओ० नि० वृ० : 'अत्थं वाएइ आयरिओ' 'सुत्तं बाएइ उवज्झाओ' वृत्ति--सूत्रप्रदा उपाध्यायाः, अर्थप्रदा आचार्याः । २-३० गौ० स्मृ० अ० १४.५६,६० : "इहोपनयनं वेदान् योऽध्यापयति नित्यशः । सुकल्पान् इतिहासांश्च स उपाध्याय उच्यते ॥ साङ्गान् वेदांश्च योऽध्याप्य शिक्षयित्वा व्रतानि च । विवणोति च मन्त्रार्थानाचार्यः सोऽभिधीयते।" ३-- अ० चू० ६.३.१ : सुत्तत्थतदुभयादि गुणसम्प:नो अप्पणो गुरुहिं गुरुपदे त्थावितो आयरिओ। ४-जि० चू० पृ० ३१८ : आयरिओ सुत्तत्थतदुभअविऊ, जो वा अन्नोऽवि सुत्तत्थतदुभयगुणेहि अ उववेओ गुरुपए ण ठाविओ सोऽवि आयरिओ चेव। ५---हा० टी०प० २५२ : 'आचार्य' सूत्रार्थप्रदं तत्स्थानीयं वाऽन्यं ज्येष्ठार्यम् । ६- (क) जि० चू० पृ० ३१३ : सिक्खा दुविहा--गहणसिक्खा आसेवणसिक्खा य । (ख) हा० टी० प० २४६ : 'शिक्षा' ग्रहणासेवनालक्षणा । ७-(क) अ० चू० : सिप्पाणि सुवण्णकारादीणि ।। (ख) जि० चू० पृ० ३१३ : सिप्पाणि-कुंभारलोहारादीणि । (ग) हा० टी०प० २४६ : 'शिल्पानि' कुम्भकारक्रियादीनि । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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