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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) ४४२ अध्ययन ६ (द्वि० उ०): श्लोक ५-७ टि० ६-८ श्लोक ५: ६. औपवाह्य ( उववज्झा ख): इसके संस्कृत रूप 'उपवाह्य' और 'औपवाह्य'-दोनों किए जा सकते हैं। इन दोनों का अर्थ-सवारी के काम में आने वाले अथवा राजा की सवारी में काम आने वाले वाहन-हाथी, रथ आदि है' । कारण या अकारण-सब अवस्थाओं में जिसे वाहन बनाया जाए, उसे औपवाह्य कहा जाता है। श्लोक ७: ७. क्षत-विक्षत या दुर्बल ( छाया घ): अगस्त्यसिंह स्थविर ने मूल पाठ 'छाया विलिदिया' और वैकल्पिक रूप से 'छाया विगलितिदिया' माना है। उनके अनुसार मूल पाठ का अर्थ है-शोभा-रहित या अपने विषय को ग्रहण करने में असमर्थ -इन्द्रिय वाले काने, अंध, बधिर आदि और वैकल्पिक पाठ का अर्थ है - भूख से अभिभूत विगलित-इन्द्रिय वाले । वैकल्पिक पाठ के 'छाया' का संस्कृत रूप 'छाता:' होता है और इसका अर्थ हैदुर्बल५ । यह बुभुक्षित और कृश के अर्थ में देशी शब्द भी है। जिनदास महत्तर और टीकाकार ने यह पाठ 'छायाविगलितेंदिया' माना है और छाया का अर्थ 'चाबुक के प्रहार से व्रणयुक्त शरीर वाला' किया है। ८. इन्द्रिय-विकल ( विगलितेंदिया घ): जिनकी इन्द्रियाँ विकल हों- अपूर्ण या नष्ट हों उन्हें विकलितेंदिय' (या विकलेन्द्रिय) कहा जाता है । काना, अन्धा, बहरा अथवा जिनकी नाक, हाथ, पैर आदि कटे हुए हों, वे विकलितेन्द्रिय होते हैं। १-- पाइयसहमहण्णव परिशिष्ट पृ० १२२४ । २-(क) हा० टी०प० २४८ : उपवाह्यानां-राजादिवल्लभानामेते कर्मकरा इत्यौपवाह्याः । (ख) अ० चि०४.२८८ : राजवाह्यस्तूपवाह्यः । (ग) बृ० हि० पृ० २००,२२८ । ३- (क) अ० चू० : उप्पेध सव्वावत्थं वाहणीया उवज्झा। (ख) जि० चू० पृ० ३१० : कारणमकारणे वा उवेज्ज वाहिज्जति उववज्झा। ४-अ० चू० : छाया शोभा सा पुण सरूवता सविसयगहणसामत्थं वा । छायातो विगलेंदियाणि जेसि ते छायाविगलेंदिया, काणंध वधिरादयो भट्ठछायेदिया, अहवा छाया छुहाभिभूता विगलितिदिया विभंगतिदिया। ५-अ० चि० ३.११३....."दुर्बल: कृशः । क्षाम: क्षीणस्तनुश्छातस्तलिनाऽमांसपेलवाः ।। ६-(क) दे० ना० वर्ग ३.३३ पृ० १०४ : "छाओ बुभुक्षितः कृशश्च"। (ख) ओ० नि० भा० २६० । ७-(क) हा० टी०प० २४८ : 'छाताः' कसघातव्रणाङ्कितशरीराः । (ख) जि० चू० पृ० ३११।। ८-(क) अ० चू० : विलिदिया काणंधबधिरादयो। (ख) हा० टी०प० २४८ : 'विगलितेन्द्रिया' अपनीतनासिकादोन्द्रियाः पारदारिकादयः । (ग) जि० चू० पृ० ३११ : विगलितेंदिया णाम हत्थपायाईहिं छिन्ना, उद्धियणयणा य विलिदिया भन्नति । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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