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दसवेलियं ( दशवैकालिक )
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प्रश्न हो सकता है- - इन स्थानों को देखने का वर्जन क्यों किया गया है ? इसका उत्तर यह है कि आलोकादि को ध्यानपूर्वक देखने वाले पर लोगों को चोर और पारदारिक होने का सन्देह हो सकता है । आलोकादि का देखना साधु के प्रति शंका या सन्देह उत्पन्न कर सकता है अतः वे शंका स्थान हैं ।
२१२ अध्ययन ५ ( प्र० उ० ) इलोक १६ टि० ७०-७२
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इनके अतिरिक्त स्त्री-जनाकीर्ण स्थान, स्त्री- कथा आदि विषय, जो उत्तराध्ययन में बतलाए गए हैं, वे भी सब शंका-स्थान हैं । स्त्री-सम्पर्क आदि से ब्रह्मचये में शंका पैदा हो सकती है। यह ऐसा सोच सकता है कि ब्रह्मचर्य में जो दोष बतलाए गए हैं वे सचमुच हैं या नहीं ? कहीं मैं ठगा तो नहीं जा रहा हू ? आदि-आदि । अथवा स्त्री सम्पर्क में रहते हुए ब्रह्मचारी को देख दूसरों को उसके ब्रह्मचर्य के बारे में संदेह हो सकता है। इसलिए इन्हें शंका का स्थान ( कारण ) कहा गया है । उत्तराध्ययन के अनुसार शंका-स्थान का संबन्ध ब्रह्मचारी की स्त्री संपर्क आदि नौ गुप्तियों से है और हरिभद्र के अनुसार शंका-स्थान का संबंध आलोक आदि से है * ।
श्लोक १६ :
७०. श्लोक १६ :
श्लोक १५ में शंका-स्थानों के वर्जन का उपदेश है । प्रस्तुत श्लोक में संक्लेशकारी स्थानों के समीप जाने का निषेध है । ७१. गृहपति ( गिहवईणं गृहपति इभ्य श्रेण्डी आदि
गिवणं क ) :
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प्राचीनकाल में पति का प्रयोग उस व्यक्ति के लिए होता था जो गृहका सर्वाधिकार सम्पन्न स्वामी होता । उस युग में समाज की सबसे महत्वपूर्ण इकाई गृह थी । साधारणतया गृहपति पिता होता था। वह विरक्त होकर गृहकार्य से मुक्त होना चाहता अथवा मर जाता, तब उसका उत्तराधिकार ज्येष्ठ पुत्र को मिलता । उसका अभिषेक कार्य समारोह के साथ सम्पन्न होता । मौर्य-शुंग काल में 'गृहपति' शब्द का प्रयोग समृद्ध वैश्यों के लिए होने लगा था ।
७२. अन्तःपुर और आरक्षिकों के ( रहस्सार क्लियाण ) :
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अगस्त्यसिंह स्थविर ने 'रहस्स-आरविखयाग' को एक शब्द माना है और इसका अर्थ राजा के अन्तःपुर के अमात्य आदि किया है । " जिनदास और हरिभद्र ने इन दोनों को पृथक् मानकर अर्थ किया है। उन्होंने 'रहस्स' का अर्थ राजा, गृहपति और आरक्षिकों का मंत्रणा - गृह तथा 'आरक्खियं' का अर्थ दण्डनायक किया है।
१० ० ० १०३ जिए, ताणि निभायमाणो 'किन्गु चोरो ? पारदारितो ? ति संकेजेजा था परं तमेवंविहं संकाय
२ उत्त० १६.११-१४ ।
३ - वही १६.१४ : संकाहाणाणि सव्वाणि, वज्जेज्जा पणिहाणवं ।
४- हा० टी० प० १६६ ।
५- (क) अ० चू० पृ० १०४ : गिहवइणो इब्भावतो ।
(ख) हा० टी० प० १६६ : 'गृहपतीना' श्रेष्ठिप्रभृतीनाम् ।
६ –उवा १.१३ : से णं आणंदे गाहावई बहूणं राईसर-तलवर - माडंबिय - कोडुंबिय इन्भ-सेट्ठि सेणावई सत्थवाहाणं बहुसु कज्जैसु य कारणेय कुटुंबे य मंतेसु य गुज्भेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे, पडिपुच्छणिज्जे, सयस्स वि य णं कुटुंबस्स मेढी पमाणं आहारे आलंबणं चक्खू, मेढीभूए पमाणभूए आहारभूए आलंबणभूए चक्खुभूए सव्वकज्जवड्ढावए यावि होत्या । ७-२० १० १० १०४ रहस्तावतारापुर अमात्यादयो। ८- (क) जि० चू० पृ० १७४ : रण्णो रहस्सट्ठाणाणि गिहवईणं रहस्तट्ठाणाणि आरविखयाणं रहस्तट्ठाणाणि, संकणादिदोसा
भवति, चकारेण अण्गेवि पुरोहियादि गहिया, रहस्सट्ठाणाणि नाम गुज्झोवरगा, जत्थ वा राहस्तियं मंतेंति ।
(ख) हा० टी० ५० १६६ राजवत्यवेि 'गृहपतीनां श्रेष्ठप्रभृतीनां रहताठागमिति योग, 'आरक्षकाणां च' : दण्डनायकादीनां रहः स्थानं' ह्यापवरमन्त्रगृहादि ।
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