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पिंडेसणा ( पिण्डषणा)
२१३ अध्ययन ५ (प्र० उ०) श्लोक १७ टि०७३-७५ ७३. संक्लेश उत्पन्न हो ( संकिलेसकरं ग ) :
रहस्य स्थानों में साधु क्यों न जाये इसका उत्तर इसी श्लोक में है । ये स्थान संक्लेशकर हैं अतः वर्जनीय हैं।
गुह्य स्थान में जाने से साधु के प्रति स्त्रियों के अपहरण अथवा मंत्र-भेद करने का सन्देह होता है । सन्देश साधु का निग्रह किया जा सकता है अथवा उसे अन्य क्लेश पहुँचाये जा सकते हैं । व्यर्थ ही ऐसे संक्लेशों से साधु पीड़ित न हो, इस दृष्टि से ऐसे स्थानों का निषेध है। संक्लेश का अर्थ है- असमाधि । असमाधि दस प्रकार की है।
श्लोक १७: ७४. श्लोक १७:
इस श्लोक में भिक्षाचर्या के लिए गये हुए मुनि को किन-किन कुलों में प्रवेश नहीं करना चाहिए, इसका उल्लेख है। ७५. निदित कुल में ( पडिकुद ठकुलं क):
__ 'प्रतिक्रु' शब्द निन्दित, जुगुप्सित और गहित का पर्यायवाची है । व्याख्याकारों के अनुसार प्रतिक्रुष्ट दो तरह के होते हैंअल्पकालिक और यावत्कालिक । मृतक और सूतक के घर अल्पकालिक-थोड़े समय के लिए प्रतिक्रुष्ट हैं । डोम, मातङ्ग आदि के घर यावत्कालिक --सर्वदा प्रतिक्रुष्ट हैं ।
आचाराङ्ग में कहा है-मुनि अजुगुप्सित और अहित कुलों में भिक्षा के लिए जाये। निशीथ में जुगुप्सनीय-कुल से भिक्षा लेने वाले मुनि के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया है।
मुनियों के लिए भिक्षा लेने के सम्बन्ध में प्रतिक्रुध कुल कौन से हैं—इसका आगम में स्पष्ट उल्लेख नहीं है । आगमों में जुगुप्सित जातियों का नाम-निर्देश नहीं है। वहाँ केवल अजुगुप्सित कुलों का नामोल्लेख है।
प्रतिष्ट कुल का निषेध कब और क्यों हुआ-इसकी स्पष्ट जानकारी सुलभ नहीं है, किन्तु इस पर लौकिक व वैदिक व्यवस्था का प्रभाव है, यह अनुमान करना कठिन नहीं है । टीकाकार प्रतिक्रुष्ट के निषेध का कारण शासन-लघुता बताते हैं। उनके अनुसार जुगुप्सित घरों से भिक्षा लेने पर जैन-शासन की लघुता होती है इसलिए वहाँ से भिक्षा नहीं लेनी चाहिए।
१-(क) अ० चू० पृ० १०४ : जत्थ इत्थीतो वा राति वा पतिरिक्कमच्छंति मंतंति वा तत्थ जदि अच्छति तो तेसि संकिलेसो भवति
कि एत्थ समणयो अच्छति ? कत्तो त्ति वा ? मन्त्रभेदादि संकेज्जा। (ख) जि० चू० पृ० १७४ : भवणगएत्थ इत्थियाइए हियणढे संकणादिदोसा भवंति ।
(ग) हा० टी०प० १६६ : 'संक्लेशकरम्' असदिच्छाप्रवृत्या मंत्रभेदे वा कर्षणादिनेति । २-ठा० १०.१४ : दसविधा असमाधी पण्णत्ता, तं जहा-पाणातिवाते मुसावाए अविण्णादाणे मेहुणे परिग्गहे इरियाऽसमिती भासाऽ
समिती एसणाऽसमिती आयाणभंड-मत्त-णिक्खेवणाऽसमिती उच्चार-पासवण खेल-सिंघाणग-जल्ल-पारिट्ठावणियाऽसमिती। ३–अ० चू० पृ० १०४ : इदं तु भिक्खाए थाणमुवदिस्सति 'जतो मग्गियव्वा' ? ४ (क) अ० चू०प० १०४ : पडिकुठें निन्दितं, तं दुविहं-इत्तरियं आवकहियं च, इत्तरियं मयगसूतगादि, आवकहितं चंडालादी। (ख) जि० चू० पृ० १७४ : पडिकुठं दुविधं - इत्तिरियं आवकहियं च, इत्तिरियं मयगसूतगादी, आवकहियं अभोज्जा डोंब.
मायंगादी। (ग) हा० टी० ५० १६६ : प्रतिक ष्टकुलं द्विविधम्--इत्वरं यावत्कथिकं च, इत्वरं सूतकयुक्तम्, यावत्कथिकम् अभोज्यम्। ५-आ० चू० ११२३ : से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा, गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविठे समाणे से जाइं पुण कुलाई जाणिज्जा,
तं जहा, उग्गकुलाणि वा, भोगकुलाणि वा, राइण्णकुलाणि वा, खत्तियकुलाणि वा, इक्खागकुलाणि वा, हरिवंसकुलाणि वा, एसियकुलाणि वा, वेसियकुलाणि वा, गंडागकुलाणि वा, कोट्टागकुलाणि वा, गामरवखकुलाणि वा, पोक्कसालियकुलाणि बा, अण्णयरेसु वा तहप्यगारेसु कुलेसु अदुगंछिएसु अगरहिए सु असणं पाणं खाइमं साइमं वा फासुयं एसणिज्जं जाव मण्णमाणे
लाभे संते पडिग्गाहेज्जा। ६-नि० १६.२७ : जे भिक्खू दुगुछियकुलेसु असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा...। ७-हा० टी०प० १६६ : एतन्न प्रविशेत शासनलघुत्वप्रसंगात् ।
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