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दसवेआलियं (दशवकालिक)
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अध्ययन
(द्वि० उ०): श्लोक २०-२३
* (आलवंते लवंते वा न निसेज्जाए पडिस्सुणे। मोत्त णं आसणं धीरो सुस्सूसाए पडिस्सुणे ॥)
(आलपन्त लपन्त वा, न निषिद्यायां प्रतिशृणुयात् । मुक्त्वा आसनं धीर:, शुश्रूषया प्रतिशृणुयात् ॥)
(बुद्धिमान् शिष्य गुरु के एक बार बुलाने पर या बार-बार बुलाने वर कभी भी बैठा न रहे, किन्तु आसन को छोड़कर शुश्रूषा के साथ उनके वचन को स्वीकार करे।)
२०-काल छंदोवयारं च
पडिलेहिताण हे उहि । तेण तेण उवाएण तं तं संपडिवायए॥
कालं छन्दोपचारं च, प्रतिलेख्य हेतुभिः । तेन तेनोपायेन, तत्तत्संप्रतिपादयेत् ॥२०॥
२०-काल२८, अभिप्राय और आराधन-विधि' को हेतुओं से जानकर, उस-उस (तदनुकूल) उपाय के द्वारा उस-उस प्रयोजन का सम्प्रतिपादन करे-पूरा करे ।
२१-विवत्ती अविणीयस्स
संपत्ती विणियस्स य । जस्सेयं दुहओ नाय सिक्खं से अभिगच्छइ॥
विपत्तिरविनीतस्य, सम्पत्ति (सम्प्राप्ति) विनीतस्य च । यस्पैतद् द्विधा ज्ञात, शिक्षां सोऽभिगच्छति ॥२१॥
२१-'अविनीत के विपत्ति और विनीत के सम्पत्ति होती है'--ये दोनों जिसे ज्ञात हैं, वही शिक्षा को प्राप्त होता है।
२२-जे यावि चंडे मइइ ढिगारवे यश्चापि चण्डो मतिऋद्धिगौरवः,
पिसुणे नरे साहस होणपेसणे। पिशुनो नरः साहसो हीनप्रेषणः ॥ अदिधम्मे विणए अकोविए अदृष्टधर्मा विनयेऽकोविदः, असंविभागी न ह तस्स मोक्खो॥ असंविभागी न खलु तस्य मोक्षः ।।२२।।।
२२ - जो नर चण्ड है, जिसे बुद्धि और ऋद्धि का गर्व है, जो पिशुन है, जो साहसिक है, जो गुरु की आज्ञा का यथासमय पालन नहीं करता, जो अदष्ट(अज्ञात) धर्मा है, जो विनय में निपुण नहीं है, जो असं विभागी है.५ उसे मोक्ष प्राप्त नहीं होता।
२३- और जो गुरु के आज्ञाकारी हैं, जो गीतार्थ हैं३६, जो विनय में कोविद है, वे इस दुस्तर संसार-समुद्र को तर कर कर्मों का क्षय कर उत्तम गति को प्राप्त होते हैं ।
२३-निद्देसवत्ती पुण जे गुरूणं निर्देशतिनः पुनये गुरूणां, सुयत्थधम्मा विणयम्मि कोविया ।
श्रुतार्थधर्माणो विनये कोविदाः । तरित्त ते ओहमिण दुरुत्तरं
तीर्वा ते ओमिमं दुरुत्तरं, खवित्त कम्मं गइमुत्तमं गय ॥
क्षपयित्वा कर्म गतिमुत्तमांगताः ॥२३॥
त्ति बेमि।
इति ब्रवीमि।
ऐसा मैं कहता हूँ।
* यह गाथा कुछ प्रतियों में मिलती है, कुछ में नहीं।
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