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________________ दसवेलियं ( वशवेकालिक ) १४१ अध्ययन ४ : सूत्र १२ टि० ५०-५१ प्रश्न हो सकता है अन्य व्रतों की अपेक्षा प्राणातिपात विरमण व्रत को पहले क्यों रखा गया ? इसका उत्तर पूर्णिकारद्वय इस प्रकार देते हैं-" अहिसा मूलव्रत है। अहिंसा परम धर्म है। शेष महाव्रत उत्तरगुण हैं; उसको पुष्ट करने वाले हैं, उसी के अनुपालन के लिए प्ररूपित हैं ।" सूत्र १२ : ५०. मृषावाद का ( मुसावायाओ ) : मृषावाद चार प्रकार का होता है : १ - सद्भाव प्रतिषेध : जो है उसके विषय में कहना कि यह नहीं है। जैसे जीव आदि हैं. उनके विषय में कहना कि जीव नहीं हैं, पुण्य नहीं है, पाप नहीं है, बन्ध नहीं है, मोक्ष नहीं है, आदि । २ - असद्भाव उद्भावन जो नहीं है उसके विषय में वैसा बतलाना अथवा उसे श्यामाक तन्दुल के तुल्य कहना । ३ - अर्थान्तर : एक वस्तु को अन्य बताना । जैसे गाय को घोड़ा कहना आदि । ४ ग जैसे काने को काना कहना । : अगस्त्य चूर्णि के अनुसार मिथ्या भाषण के पहले तीन भेद हैं । कहना कि यह है। जैसे आत्मा के सर्वगत, सर्वव्यापी न होने पर भी उसे ५१. क्रोध से या लोभ से ( कोहा वा लोहा वा ): यहाँ मृषावाद के चार कारण बतलाये हैं । वास्तव में मनुष्य क्रोध आदि की भावनाओं से ही झूठ बोलता है । यहाँ जो चार कारण बतलाये हैं वे उपलक्षण मात्र हैं । क्रोध के कथन द्वारा मान को भी सूचित कर दिया गया है। लोभ का कथन कर माया के ग्रहण की सूचना दी है । भय और हास्य के ग्रहण से राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान आदि का ग्रहण होता है । इस तरह मृषावाद अनेक कारणों से बोला जाता है । यही बात अन्य पापों के सम्बन्ध में लागू होती है । १ (क) अ० पू० पृ० ८२ महम्यता पाणातिवाताओ वेरमणं पहाणी मूलगुण इति, जेण 'अहिंसा परमो धम्मो सागि महत्वतानि एतस्सेव अत्थविसेसगाणीति तदणंतरं । क्रमपडिनिग्गमणत्थं पडुच्चारणमुक्तार्थस्य 'पढमे भंते ! महव्वते पाणातिवातात वेरमणं'। (ख) जि० पू० पृ० १४० सीसो आह-कि कारणं साणि वपाणि मोतून पाणाइवापयेरमणं पदमं भणिपति ?, आयरि भगइ एवं मूलव्य 'अहिंसा परमो धम्मो' सि सेसानि पुण महव्ववाणि उत्तरगुणा, एतस्स चेव अणुयात्वं पविचाणि । २ (क) अ० ० पृ० ८२ मुसावातो सिविहो सं० सभापडिसेहो १ अभूतुग्भावणं २ अत्यंतरं ३ सम्भावपडिसेहो जहा नत्थ जीवे' एवमादि १ । अभूतुम्भावणं 'अत्थि, सव्वगतो पुण' २ । अत्यंतरं गावि महिसि भणति एवमादि ३ । (ख) जि० चू० पृ० १४८ : तत्थ मुसावाओ चउव्विहो, तं० – सम्भावपडिसेहो असन्भूयुग्भावणं अत्यंतरं गरहा, तत्थ सम्भाव डिसेहो णाम जहा णत्थि जीवो नत्थि पुण्णं नत्थि पावं नत्थि बंधो णत्थि मोक्खो एवमादी, असम्भूयुग्भावणं नाम जहा अजीबो (सख्यवायी) सामागतंयुलमेशो वा एवमादी, पयत्वंतरं नाम जो गावि भणइ एसो आसोशि, गरहा जाम 'सहेब काणं काणिति' एवमादी ३– (क) अ० चू० पृ० ८२ : मुसावात वेरमणे कारणाणि इमाणिसे कोहा वा लोभा वा भता वा हासा वा, "दोसा विभागे समाणासा" इति को मानो अंतगत एवं लोने माता, भतहस्ते पेज्जकलहावतो सविसेसा 1 (ख) जि०० पृ० १४८ सोय मुसावाओ एतेहि कारणेहि भासिज्ज से कोहा या लोहा या भया वा हावा वा कोह गहण माणसवि ग्रहणं कर्म लोग माया गहिया, भवहासग्रहण पेक्जदोसकलजन्यस्वा महिया कोहा 1 इग्गहण भावओ गहणं कयं, एगग्गहणेण गहणं तज्जातीयाणमितिकाउं सेसावि दव्वखेत्तकाला गहिया । Jain Education International (ग) हा० टी० १० १४६ 'क्रोधादा सोभाई' त्यनेनाद्यन्तयहणान्मानमायापरिग्रह 'भयादा हास्याहा' इत्यनेन तु प्रेमद्वेष कलहाभ्याख्यानादिपरिग्रहः । For Private & Personal Use Only " www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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