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________________ १४० छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) अध्ययन ४: सूत्र ११ टि० ४८-४६ ३ करूँ नहीं कराऊँ नहीं मन से काया से ४ करूं नहीं अनुमोदूं नहीं मन से काया से ५ करूं नहीं अनुमोदूं नहीं वचन से काया से ६ करूं नहीं अनुमोदूं नहीं मन से काया से ७ कराऊँ नहीं अनुमोदूं नहीं मन से वचन से ८ कराऊँ नहीं अनुमोदूं नहीं वचन से काया से ६ कराऊँ नहीं अनुमोदूं नहीं मन से काया से ६-करण २ योग ३, प्रतीक-अङ्क २३, भङ्ग ३ : १ करूँ नहीं कराऊँ नहीं मन से वचन से काया से २ करूँ नहीं अनुमोदूं नहीं मन से वचन से काया से ३ कराऊँ नहीं अनुमोदूं नहीं मन से वचन से काया से ७--करण ३ योग १, प्रतीक-अङ्क ३१, भङ्ग ३: । १ करूँ नहीं कराऊँ नहीं अनुमोदूं नहीं मन से २ करूं नहीं कराऊँ नहीं अनुमोदूं नहीं वचन से ३ करूं नहीं कराऊँ ___ नहीं अनुमोदूं नहीं काया से ८-- करण ३ योग २, प्रतीक-अङ्क ३२, भङ्ग ३: । १ करूँ नहीं कराऊँ नहीं अनुमोदूं नहीं मन से वचन से २ करूं नहीं कराऊँ नहीं अनुमोदूं नहीं मन से काया से ४७ ३ करूं नहीं कराऊँ नहीं अनुमोदूं नहीं वचन से काया से ४८ &—करण ३ योग ३, प्रतीक-अङ्क ३३, भङ्ग १: । १ करूं नहीं कराऊँ नहीं अनुमोदूं नहीं मन से वचन से काया से ४६ इन ४६ भङ्गों को अतीत, अनागत और वर्तमान इन तीन से गुणन करने पर १४७ भङ्ग होते हैं। इससे अतीत का प्रतिक्रमण, बर्तमान का संथरण और भविष्य के लिए प्रत्याख्यान होता है। कहा है--"प्रत्याख्यान सम्बन्धी १४७ भङ्ग होते हैं । जो इन भङ्गों से प्रत्याख्यान करता है वह कुशल है और अन्य सब अकुशल हैं।" १- (क) हा० टी० प० १५१ : "लद्धफलमाणमेयं भंगा उ हवंति अउणपन्नासं । तीयाणागयसंपतिगुणियं कालेण होइ इमं ॥१॥ सोयाल भंगसयं, कह ? कालतिएण होति गुणणा उ । तीतस्स पडिक्कमणं पच्चुप्पन्नस्स संवरणं ॥२॥ पच्चक्खाणं च तहा होइ य एसस्स एस गुणणा उ। कालतिएणं भणियं जिणगणधरवायएहिं च ॥ ३॥" (ख) अ० चू० पृ० ८१ : एते सव्वे वि संकलिज्जत -ति.वहं अमुयंतेहि सत्त लद्धा, दुविहं तिविहेण तिण्ण, एते संक.लता जाता दस । दुविहं दुविहेण णव लद्धा, ते दससु पक्खित्ता जाता एकूणवीसं । दुविहं एक्कविहेण णव लद्धा, ते एगणवीसाए पक्खित्ता जाता अट्ठावीसं । एक्कविहं तिविहेण तिण्णि अट्ठावीसाए पक्खिता जाता एक्कतीसा । एक्कविहं दुविहेण णव लद्धा एक्कतीसाए पक्खित्ता जाता चत्तालीसं । एक्कविहं एक्कविहेण णव चत्तालीसाए पक्खित्ता जाता एगूणपण्णा । एते पडुप्पण्णं संवरेति, एगूणपण्णा अतीतं णिदति, एतेच्चेव तहा अणागतं पच्चक्खाति, तिण्णि एगणपण्णातो सत्तयत्तालं भंगसतं । एत्थ पढमभंगो साबूण जुज्जति तेण अधिकारो, सेसा सावगाणं संभवतो उच्चारितसरूव त्ति परवणं । पाणातिवात. पच्चक्खाणं सविकल्पं भणितं । २- दश० नि० गा० २९६ : सीयालं भंगसयं पच्चक्खाणम्मि जस्स उवलद्ध। सो पच्चक्खाणकुसलो सेसा सव्वे अकुसला उ॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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