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पिंडेसणा ( पिण्डेषणा )
१२.
१३.
१४.
१५
१६.
मूलकम्म
(ग) साधु और गृहस्थ दोनों के द्वारा लगने वाले दोष एपणा' के दोष कहलाते हैं ये आहार विधिपूर्वक न लेने-देने और शुद्धाद्ध की छानबीन न करने से पैदा होते हैं। वे ये हैं
१.
संकिय
२.
३.
५.
६.
७.
विज्जा
मंत
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चुण्ण
जोग
मस्य
निक्ति
पिहिय
साहरिय
१७६
विद्या
मन्त्र
चूर्ण
योग
मूल कर्म
"
शत
प्रक्षित
निक्षिप्त
दायग
ਕਸਰ
अपरिणय
८.
ε.
लित
१०.
छड्डिय
भोजन सम्बन्धी दोष पाँच हैं। ये भोजन की सराहना व निन्दा प्रादि करने से उत्पन्न होते हैं। वे इस प्रकार हैं
(१) अङ्गार, (२) धूम, (३) संयोजन, (४) प्रमाणातिरेक और (५) कारणातिक्रांत ।
ये संतालिस दोष आगम साहित्य में एकत्र कहीं भी वरिंगत नहीं हैं किन्तु प्रकीर्ण रूप में मिलते हैं। श्री जयाचार्य ने उनका अपुनरुक्त संकलन किया है।
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पिहित
संहृत
दायक
उन्मिश्र
अपरिलत
अध्ययन ५ आमुख
लिप्त
कर्म, पौशिक, मिश्रजात अध्ययतर पूर्ति-कर्म, कोत-कृत प्रामिष यान्च्छेद, पतिसृष्ट और अभ्याहत से स्थानाङ्ग (१.६२) में बतलाए गए हैं । धात्री-पिण्ड, दूती-पिण्ड, निमित्त -पिण्ड, प्राजीव-पिण्ड, वनीपकपिण्ड, चिकित्सा-पिण्ड, कोप-पिण्ड, मान-पिण्ड, माया-पिण्ड, लोम-पिण्ड, विद्या-पिण्ड मन्य-पिण्ड, चूर्ण-पिण्ड, योग-पिण्ड और पूर्व-पश्चात् संस्तव विशीष (उ०१२ ) में बतलाए गए हैं। परिवर्त का उल्लेख आयारचूला (१.२१) में मिलता है । अङ्गार, धूम, संयोजना, प्राभृतिका - ये भगवती ( ७.१ ) में मिलते हैं। मूलकर्म प्रश्नव्याकरण ( संवर १.१५ ) में है । उद्भिन्न, मालापहृत, अध्यवतर, शङ्कित, ग्रक्षित, निक्षिप्त, पिहित, संहृत, दायक, उन्मिश्र, श्रपरिगत, लिप्त और छर्दित---ये दशवकालिक के पिण्डषरणा अध्ययन में मिलते हैं । कारणातिक्रान्त उत्तराध्ययन (२६.३२ ) और प्रमाणातिरेक भगवती (७.१) में मिलते हैं । हमने टिप्पणियों में यथास्थान इनका निर्देश किया है।
छादित
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