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________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) १७८ निर्दोष भिक्षा भिक्षु को जो कुछ मिलता है वह भिक्षा द्वारा मिलता है इसलिए कहा गया है - " सव्वं से जाईयं होई गत्थि किंचि अजाईयं " ( उत्त० २.२८) भिक्षु को सब कुछ माँगा हुआ मिलता है। उसके पास प्रयाचित कुछ भी नहीं होता। माँगना परीषह - कष्ट है ( देखिए उत्त० २ गद्य भाग) दूसरों के सामने हाथ पसारना सरल नहीं होता" पाणी नो सुप्पसारए" (उत्त०२.२२) । किन्तु पहिया की मर्यादा का ध्यान रखते हुए भिक्षु को वंसा करना होता है। भिक्षा जितनी कठोर चर्या है उससे भी कहीं कठोर चर्चा है उसके दोषों को टालना उसके बयालीस दोष हैं। उनमें उद्गम चौर उत्पादन के सोलह-सोलह पर एपला के दस सब मिलकर बयालीस होते हैं धीर पांच रोप परिभोगंपरा के है (उ० २४. ११. १२) (क) गृहस्थ के द्वारा लगने वाले दोष 'उद्गम' के दोष कहलाते हैं। ये आहार की उत्पत्ति के दोष हैं। ये इस प्रकार हैं १ प्राधाक २ ३ ४. ५. ६. ७. 5. ε. १०. ११. १२ Jain Education International १३. १४. १५. १६. १. २. ३. ४. ५. ६. ७. "गवेसरणाए गहणे य परिभोगेसरणाय य । आहारो वहिसेज्जाए एए तिन्नि विसोहए । उभ्गमुप्पायरणं पढमे बीए सोहेज्ज ए सरणं । परिभोमि चवर्क विसोज्ज जयं जई ॥ ८. ε. १०. ११. आहाकम्म उद्देसिय पूइकम्म मीसजाय ठवरणा पाहुया पानोयर कीग्र पामिन्य (ख) साधु के द्वारा लगने वाले दोष उत्पादन के दोष कहलाते हैं। ये आहार की याचना के दोष हैं धाई धात्री अध्ययन ५ आमुख परियट्टि अभि उब्भिन्न मालोहड पछि अरिसि प्रभोयरय दुई निमित्त आजीव वणीमग तिमिच्छा कोह मारण माया सोह पुव्वि-पच्छा-संथव For Private & Personal Use Only प्रशिक पूतिकर्म मिश्रजात स्थापना प्राभूतिका प्रादुष्कररण क्रीत प्रामित्य परिवर्त अभिहत उभिन्न मालापहृत प्राच्य अनिसृष्ट अध्यवतरक दूती निमित्त आजीव वनीपक चिकित्सा कोय मान माया लोभ पूर्व-पश्चात् संस्तव www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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