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________________ आमुख नाम चार प्रकार के होते हैं- गौण, सामयिक, उभयज और अनुभयज' । गुरण, क्रिया और सम्बन्ध के योग से जो नाम बनता है वह गौरण कहलाता है। सामयिक नाम वह होता है जो अन्वर्थ न हो, केवल समय या सिद्धान्त में ही उसका प्रयोग हुअा हो। जन-समय में भात को प्राभृतिका कहा जाता है, यह सामयिक नाम है । 'रजोहरण' शब्द अन्वर्थ भी है और सामयिक भी। रज को हरने वाला 'रजोहररण' यह अन्वर्थ है। सामयिक-संज्ञा के अनुसार वह कर्म-रूपी रजों को हरने का साधन है इसलिए वह उभयज है। पिण्ड शब्द 'पिडि संघाते' धातु से बना है। सजातीय या विजातीय ठोस वस्तुओं के एकत्रित होने को पिण्ड कहा जाता है। यह अन्वर्थ है इसलिए गौण है । सामयिक परिभाषा के अनुसार तरल वस्तु को भी पिण्ड कहा जाता है। प्राचाराङ्ग के सातवें उद्देशक में पानी की एषणा के लिए भी 'पिण्डषणा' का प्रयोग किया है। पानी के लिए प्रयुक्त होने वाला 'पिण्ड' शब्द अन्वर्थ नहीं है इसलिए यह सामयिक है। जैन-समय की परिभाषा में यह अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य इन सभी के लिए प्रयुक्त होता है। एषसा शब्द गवेषणषणा, ग्रहणषणा और परिभोगषणा का संक्षिप्त रूप है। इस अध्ययन में पिण्ड की गवेषणा-शुद्धाशुद्ध होने, ग्रहण (लेने) और परिभोग (खाने) की एषरणा का वर्णन है इसलिए इसका नाम है 'पिण्डषणा। आयारचूला के पहले अध्ययन का इसके साथ बहुत बड़ा साम्य है। वह इसका विस्तार है या यह उसका संक्षेप यह निश्चय करना सहज नहीं है। ये दोनों अध्ययन 'पूर्व' से उद्धृत किए गए हैं। भिक्षा तीन प्रकार की बतलाई गई है-दोन-वृत्ति, पौरुषध्नी और सर्व-संपत्करी । अनाथ और अपङ्ग व्यक्ति मांग कर खाते हैं, वह दोन-वृत्ति भिक्षा है। श्रम करने में समर्थ व्यक्ति मांग कर खाते हैं, वह पौरुषघ्नी भिक्षा है । संयमी माधुकरी वृत्ति द्वारा सहज सिद्ध आहार लेते हैं, वह सर्व-संपत्करी भिक्षा है। दीन-वृत्ति का हेतु असमर्थता, पौरुषघ्नी का हेतु निष्कर्मण्यता और सर्व-संपत्करी का हेतु अहिंसा है। भगवान् ने कहा मुनि की भिक्षा नवकोटि-परिशुद्ध होनी चाहिए-वह भोजन के लिए जीव-वध न करे, न करवाए और न करने वाले का अनुमोदन करे; न मोल ले, न लिवाए और न लेने वाले का अनुमोदन करे; तथा न पकाए, न पकवाए और न पकाने वाले का अनुमोदन करे। इस अध्ययन में सर्व-संपत्करी-भिक्षा के विधि-निषेधों का वर्णन है। नियुक्तिकार के अनुसार यह अध्ययन 'कर्म प्रवाद' नामक पाठवें 'पूर्व' से उद्धृत किया गया है । १-पि० नि० गा० ६ : गोण्णं समयकयं वा, जं वावि हवेज्ज तदुभएण कयं । तं बिति नामपिंड, ठवणापिडं अओ वोच्छं । २- पि० नि० गा०६। ३–अ० प्र० ५.१ : सर्वसम्पत्करी चैका, पौरुषघ्नी तथापरा। वृत्तिभिक्षा च तत्त्वज्ञैरिति भिक्षा त्रिधोदिता । ४-ठा० ६.३० : समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णवकोडिपरिसुद्ध भिक्खे पं० तं-ण हणइ, ण हणावइ, हणंतं ___णाणुजाणइ, ण पयइ, ण पयावेति, पयंत णाणुजाणति, ण किणति, ण किणावेति, किर्णत णाणुजाणति । ५–दश० नि० १.१६ : कम्मप्पवायपुव्वा पिंडस्स उ एसणा तिविहा । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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