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१. विषयं न सि ) I
ख
अगस्त्यसिंह स्थविर और जिनदास महत्तर ने 'विजयं न सिक्खे' के स्थान पर 'विणए न चिट्ठे' पाठ मानकर व्याख्या की है। टीकाकार ने इसे पाठान्तर माना है। इसका अर्थ-विनय में नहीं रहता - किया है ।
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२. माया ( मय ) :
मूल शब्द 'माया' है । छन्द-रचना की दृष्टि से 'या' को 'य' किया गया है ।
टिप्पण अध्ययन १ ( प्रथम उद्देशक ) श्लोक १ :
क
३. प्रमादवश ( प्पमाया ) :
यहाँ प्रमाद का अर्थ इन्द्रियों की आसक्ति, नींद, मद्य का आसेवन, विकथा आदि है ।
ख
४. विनय की ( विणयं ):
यहाँ विनय शब्द अनुशासन, नम्रता, संयम और आचार के अर्थ में प्रयुक्त है । इन विविध अर्थों की जानकारी के लिए देखिए दशाश्रुतस्कन्ध द० ४ । विनय दो प्रकार का होता है— ग्रहण-विनय और आसेवन-विनय ज्ञानात्मक विनय को ग्रहण विनय और क्रियात्मक विनय को आसेवन-विनय कहा जाता है । अगस्त्य चूर्णि और टीका में केवल आसेवन-विनय और शिक्षा-विनय – ये दो भेद माने हैं। आसेवन-विनय का अर्थ सामाचारी शिक्षण, प्रतिलेखनादि क्रिया का शिक्षण या अभ्यास होता है और शिक्षा-विनय का अर्थ है - इनका ज्ञान ।
(क) अ० चू० पृ० २०६ : विणए न चिट्ठे विणए ण ट्ठाति ।
(ख) जि० चू० पृ० ३०२ : विनयेन न तिष्ठति ।
२- हा० टी० प० २४३ : अन्ये तु पठन्ति - गुरोः सकाशे 'विनये न तिष्ठति' विनये न वर्त्तते, विनयं नासेवत इत्यर्थः ।
३ - (क) अ० चू० पृ० २०६ : मय इति मायातो, एत्थ आयारस्स ह्रस्सता, सरहस्तता य लक्खणविज्जाए अस्थि जधाप्रातिपदिकस्य पागते विसेसेच, जया एत्वेव 'बा' सहस्त
'ह्रस्वो
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(व) जि० ० ० ३०१ मधगहण मायागणं, मयकारहस्तसंबंधाणुसोमयं ।
(ग) हा० टी० प० २४२ मायातो निकृतिरूपायाः ।
(क) अ० चू० पृ० २०६ : इंदिय निद्दामज्जादिप्पमादेण ।
(ख) जि० ० ० २०१ प्रमाणमिणा गहिया ।
(ग) हा० टी० प० २४२ : प्रमादाद् - निद्रादेः सकाशात् ।
५ जि० ० ५० १०१ विषये दुनिए आतेवाविगए।
(क) अ० चू० पृ० २०६ : दुविहे आसेवण सिक्खा विणए । (च) ० ० ० २४२ विनयम् आसेवनाशिक्षामेदभिन्नम् ।
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