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________________ विवित्तचरया ( विविक्तचर्या ) ५२५ प्रस्थित काठ आदि की भाँति जो लोग इन्द्रिय-विषयों के स्रोत में बहे जाते हैं, वे भी अनुस्रोत प्रस्थित कहलाते है' । ५. प्रतिस्रोत ( पडिसोय ख ) : प्रतिस्रोत का अर्थ है -- जल का स्थल की ओर गमन । शब्दादि विषयों से निवृत्त होना प्रतिस्रोत है । ६. गति करने का लक्ष्य प्राप्त है ( लढलक्खेणं ख ) : जिस प्रकार धनुर्वेद या याग-विद्या में निपुण व्यक्ति बालाय जैसे सूक्ष्मतम लक्ष्य को बींच देता है (प्राप्त कर देता है उसी प्रकार विषय-भोगों को त्यागने वाला संयम के लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है । ७. जो विषय-भोगों से विरक्त हो संयम की आराधना करना चाहता है ( होऊकामेणं ): यहाँ ‘होउकाम' का अर्थ है - निर्वाण पाने योग्य व्यक्ति । यह शब्द परिस्थितिवाद के विजय की ओर संकेत करता है । आध्यात्मिक यही हो सकता है जो असदाचारी व्यक्तियों के जीवन को अपने लिए उदाहरण न बनाए, किन्तु आगमोक्त विधि के अनुसार ही रहे। कहा भी है मूर्ख लोग परिस्थिति के अधीन हो स्वधर्म को त्याग देते हैं किन्तु तपस्वी और ज्ञानी साधुपुरुष घोर कष्ट पडने पर भी स्वधर्म को नहीं छोड़ते, विकृत नहीं बनते । इलोक ३: द्वितीय चूलिका : श्लोक ३ टि० ५-६ ८. आयव ( आसयो) जिनदास भ्रूणि में 'आसव' (सं० आश्रव) पाठ है । इसका अर्थ इन्द्रिय-जय किया गया है । टीका में 'आसमो' को पाठान्तर माना है | अगस्त्य ण में वह मूल है। उसका अर्थ तपोवन या व्रतग्रहण, दीक्षा या विश्राम स्थल है । ६. अनुस्रोत संसार है ( अणुसोओ संसारो " ) : अनुगमन संसार (जन्म-मरण की परम्परा) का कारण है। अभेद-दृष्टि से कारण को कार्य मान उसे संसार कहा है"। १- ( क ) अ० ० : अणुसद्दो पच्छाभावे । सोयमिति पाणियस्स निण्णप्पदेसाभिसप्पणं । सोतेण पाणियस्स गमणेपवत्ते जं जत्थ पडितं कट्ठाति वुज्झति, तं सोतमणुजातीति अणुसोतपडितं । एवं अणुसोतपट्ठित इव । इव सद्द लोवो एत्थ दट्ठव्वो । (ख) जि० चू० पृ० ३६८ । २ (क) अ० चू० : प्रतीपसोतं पडिसोतं, जं पाणियस्स थलं प्रतिगमणं । सद्दादि विसयपडिलोमा प्रवृत्ती दुक्करा । (ख) जि०० पृ० ३६ प्रतीपं धोतं प्रतियोतं जं पाणिपस्स व प्रति गमनं तं पुणन साभावित देवतादिनियोगे होगा जहा त असवर्क एवं सद्दादीन विसयाग पडिलोमा प्रवृत्तिः दुक्करा (क) अ० ० जया ईसत्वं सुसिति सुमुहमवि वालादिगतं लभते तथा कामभावनाभाविते तप्परिण्याण संजयजो समते सो पडिलो तेण पडिसोतललखेण । (ख) चि० ० ० ३६६ । ४ - जि० च० पृ० ३६६ : निव्वाणगमणारुहो 'भविउकामो' होउकामो तेण होउकामेण । ५ हा० टी० प० २७६'' सारसमुद्र परिहारेण मुक्ततया भवितुकामेन साना नारितादाहरणीकृत्या सम्मायंप्रवण वेतोऽपि कर्तव्यम अपित्वागमं प्रवर्णनंव भवितव्यमिति उक्त निमित्तमासाद्य यदेव किञ्चन स्वधर्मा विसृजन्ति बालिशाः । तपः श्रुतज्ञानधनास्तु साधवो, न यान्ति कृच्छ्र परमेऽपि विक्रियाम् ।” ६- (क) जि० चू० पृ० ३६६ : आसवो नाम इंदियजओ । (ब) हा० टी० १० २७१'' इन्द्रियादिरूपः परमार्थदेशनः कायवाह मनोव्यापार 'आम वा व्रतमादिरूपः । लोगो पयमाणो संसारे निवड संसारकारणं सा ७ (क) जि० ० ० १६० अणुसोओ संसारो सहा अणुसोलह दयो असोता इति कारणे कारणोवारो। (ख) हा० डी० १० २७१ 'अनुमतः संसारः सादिनु संसार एवं कारणे कार्योपचारात् यथाविधे मृत्यु दधि पुषी प्रत्यक्षो ज्वरः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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