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सम्पादकीय
सम्पादन का कार्य सरल नहीं है—यह उन्हें सुविदित है, जिन्होंने इस दिशा में कोई प्रयत्न किया है। दो-ढाई हजार वर्ष पुराने ग्रन्थों के सम्पादन का कार्य और भी जटिल है, जिनकी भाषा और भाव-धारा आज की भाषा और भाव-धारा से बहुत व्यवधान पा चुकी है। इतिहास की यह अपवाद - शून्य गति है कि जो विचार या आचार जिस आकार में आरब्ध होता है, वह उसी आकार में स्थिर नहीं रहता - या तो वह बड़ा हो जाता है या छोटा । यह ह्रास और विकास की कहानी ही परिवर्तन की कहानी है । कोई भी आकार ऐसा नहीं है, जो कृत है और परिवर्तनशील नहीं है। परिवर्तनशील घटनाओं, तथ्यों, विचारों और आचारों के प्रति अपरिवर्तनशीलता का आग्रह मनुष्य को असत्य की ओर ले जाता है । सत्य का केन्द्र बिन्दु यह है कि जो कृत है, वह सब परिवर्तनशील है । कृत या शाश्वत भी ऐसा क्या है, जहां परिवर्तन का स्पर्श न हो ? इस विश्व में जो है, वह वही है जिसकी सत्ता शाश्वत और परिवर्तन की धारा से सर्वधा विमुक्त नहीं है।
शब्द की परिधि में बंधने वाला कोई भी सत्य क्या ऐसा हो सकता है जो तीनों कालों में समान रूप से प्रकाशित रह सके ? शब्द के अर्थ का उत्कर्ष या अपकर्ष होता है-भाषा-शास्त्र के इस नियम को जानने वाला यह आग्रह नहीं रख सकता कि दो हजार वर्ष पुराने शब्द का आज वही अर्थ सही है जो वर्तमान में प्रचलित है । 'पाषण्ड' शब्द का जो अर्थ आगम-ग्रन्थों और अशोक के शिलालेखों में है, वह आज के श्रमण-साहित्य में नहीं है। आज उसका अपकर्ष हो चुका है। आगम साहित्य के सैकड़ों शब्दों की यही कहानी है कि वे आज अपने मौलिक अर्थ का प्रकाश नहीं दे रहे हैं। इस स्थिति में हर चिन्तनशील व्यक्ति अनुभव कर सकता है कि प्राचीन साहित्य के सम्पादन का काम कितना दुरूह है।
मनुष्य अपनी शक्ति में विश्वास करता है और अपने पौरुष से खेलता है, अतः वह किसी भी कार्य को इसलिए नहीं छोड़ देता कि वह दुरूह है । यदि यह पलायन की प्रवृत्ति होती तो प्राप्य की सम्भावना नष्ट ही नहीं हो जाती किन्तु आज जो प्राप्त है, वह अतीत के किसी भी क्षण में विलुप्त हो जाता। आज से हजार वर्ष पहले नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि के सामने अनेक कठिनाइयां थीं। उन्होंने उनकी चर्चा करते हुए लिखा है
१. सत् सम्प्रदाय (अर्थ-दोष की सम्यक् गुरुपरम्परा) प्राप्त नहीं है।
२. सत् उह (अर्ध की आलोचनात्मक कृति या स्थिति) प्राप्त नहीं है।
३. अनेक वाचनाएं (आगमिक अध्यापन की पद्धतियां ) हैं । ४. पुस्तकें अशुद्ध हैं।
५. कृतियां सूत्रात्मक होने के कारण बहुत गंभीर है।
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