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________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) १८२ अध्ययन ५ (प्र० उ० ) : श्लोक १४-२० १४-दवदवस्स न गच्छेज्जा भासमाणो य गोयरे । हसंतो नाभिगच्छेज्जा कुलं उच्चावयं सया ॥ द्रवं द्रवं न गच्छेत्, भाषमाणश्व गोचरे। हसन् नाभिगच्छेत्, कुलमुच्चावचं सदा ॥१४॥ १४ --उच्च-नीच कुल में गोचरी गया हुआ मुनि दौड़ता हुआ न चले,१३ बोलता और हँसता हुआ न चले। १५-६ आलोयं थिग्गलं दारं संधि दगभवणाणि य । चरंतो न विणिज्झाए संकटाणं विवज्जए ॥ आलोक 'थिग्गलं' द्वारं, सन्धि दकभवनानि च। चरन् न विनिध्यायेत्, शङ्कास्थानं विवर्जयेत् ॥१५॥ १५.- मुनि चलते समय आलोक,६५ थिग्गल, द्वार, संधि तथा पानी-घर को न देखे। शंका उत्पन्न करने वाले स्थानों से६९ बचता रहे। १६-रन्नो गिहवईणं च । रहस्सारक्खियाण य। संकिलेसकरं ठाणं परिवज्जए॥ राज्ञो गृहपतीनां च, रहस्यारक्षिकाणाञ्च । संक्लेशकरं स्थानं, १६--राजा, गृहपप्ति,७१ अन्तःपुर और आरक्षिकों के उस स्थान का मुनि दूर से ही वर्जन करे, जहां जाने से उन्हें संक्लेश उत्पन्न हो। दूरओ दूरतः पारवजयत् ॥१६॥ १७-पडिकुटकुलं न पविसे मामगं परिवज्जए। अचियत्त कुलं न पविसे चियत्तं पविसे कुलं ।। प्रतिक्रुष्ट-कुलं न प्रविशेत, मामकं परिवर्जयेत् । 'अचियत्त'-कुलं न प्रविशेत्, 'चियत्तं' प्रविशेत् कुलम् ॥१७॥ १७—मुनि निदित कुल में°५ प्रवेश न करे । मामक (गृह-स्वामी द्वारा प्रवेश निषिद्ध हो उस) का परिवर्जन करे। अप्रीतिकर कुल में प्रवेश न करे। प्रीतिकर ८ कुल में प्रवेश करे । १८-मुनि गृहपति की आशा लिए बिना सन और मृग-रोम के बने वस्त्र से८२ का द्वार स्वयं न खोले,८३ किवाड़ न खोले८४ । १८-साणोपावारपिहियं अप्पणा नावपंगरे। कवाडं नो पणोल्लेज्जा ओग्गहं से अजाइया ॥ शाणी-प्रावार-पिहित, आत्मना नापवृणुयात् । कपाटं न प्रणोदयेत्, अवग्रहं तस्य अयाचित्वा ॥१८॥ -१६गोयरग्गपविट्ठो उ वच्चमुत्तं न धारए। ओगासं फासुयं नच्चा अन्नविय वोसि रे ॥ गोचराग्रप्रविष्टस्तु, व!मूत्रं न धारयेत् । अवकाशं प्रासुकं ज्ञात्वा, अनुज्ञाप्य व्यत्सजेत ॥१६॥ १६-गोचरान के लिए उद्यत मुनि मल-मूत्र की बाधा को न रखे८६ । (गोचरी करते समय मल-मूत्र की बाधा हो जाए तो) प्रासुक-स्थान६७ देख, उसके स्वामी की अनुमति लेकर वहाँ मल-मूत्र का उत्सर्ग करे। २०- नीयदुवारं तमसं कोटगं परिवज्जए। अचक्खुविसओ जत्थ पाणा दुप्पडिलेहगा ॥ नीचद्वारं तमो (मयं), कोष्ठकं परिवर्जयेत् । अचक्षुविषयो यत्र, प्राणाः दुष्प्रतिलेख्यकाः ॥२०॥ २०- जहाँ चक्षु का विषय न होने के कारण प्राणी न देखे जा सकें, वैसे निम्न-द्वार वाले तमपूर्ण कोष्ठक का परिवर्जन करे। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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