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________________ खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा ) अध्ययन ३ : श्लोक ३ टि० २१ (३) शरीर पर गिरी हुई रज को पोंछना, लुहना । (४) अमुक ने यह कार्य किया या नहीं, यह दूसरे व्यक्ति (गृहस्थ) के द्वारा पुछवाना। (५) रोगी (गृहस्थ) से पूछना - तुम कैसे हो, कैसे नहीं हो अर्थात् (गृहस्थ ) रोगी से कुशल-प्रश्न करना । 'अगस्त्य चणि' में प्रथम तीनों अर्थ दिये हैं । तीसरा अर्थ 'संपुछगो' पाठान्तर मानकर किया है। जिनदास महत्तर ने केवल पहला अर्थ किया है । हरिभद्र सूरि ने पहले दो अर्थ किये हैं । 'सूत्रकृताङ्ग चूणि' में पाँचों अर्थ मिलते हैं । शीलाङ्क सूरि ने प्रथम तीन अर्थ दिये हैं। चणिकार और टीकाकार इस शब्द के बारे में संदिग्ध हैं। अत: इसके निर्णय का कोई निश्चित आधार नहीं मिलता कि यह अनाचार 'संपुच्छण' है या 'संपुंछगो'। इसके विकल्प से भी कई अर्थ मिलते हैं। इसलिए सूत्रकार का प्रतिपाद्य क्या है यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। एक बात अवश्य ध्यान देने योग्य है कि छेद सूत्रों में 'संपुच्छण' के प्रायश्चित्त की कोई चर्चा नहीं मिलती किंतु शरीर को संवारने और मैल आदि उतारने पर प्रायश्चित्त का विधान किया है। 'संपुछग' का सम्बन्ध जल्ल-परीसह से होना चाहिए । पंक, रज, मैल आदि को सहना जल्ल-परीषह है । संबाधन, दंत-प्रधावन और देह-प्रलोकन-ये सारे शरीर से सम्बन्धित हैं और संपुच्छ (पुंछ) ण इनके साथ में है इसलिए यह भी शरीर से सम्बन्धित होना चाहिए। निशीथ के छ: सूत्रों से इस विचार की पुष्टि होती है। वहाँ क्रमश: शरीर के प्रमार्जन, संबाधन, अभ्यङ्ग, उद्वर्तन, प्रक्षालन और रंगने का प्रायश्चित्त कहा गया है। १--(क) अ० चू० पृ० ६० : संपुच्छणं --जे अंगावयवा सयं न पेच्छति अच्छि सिर-पिट्ठमादि ते परं पुच्छति – 'सोभत्ति वा ण व त्ति'-अहवा गिहीण सावज्जारंभा कता पुच्छति । (ख) अ० चू० पृ० ६० : अहवा एवं पाढो “संपुछगो" कहंचि अंगे रयं पडित पुंछति --लूहेति । २---जि० चू० पृ० ११३ : संपुच्छणा णाम अप्पणो अंगावयवाणि आपुच्छमाणो परं पुच्छइ। ३-हा० टी० ५० ११७ : 'संप्रश्नः' - सावधो गृहस्थविषयः, राढाथ कीदृशो वाऽहमित्यादिरूपः । ४ सू० १.६.२१ चू० : संपुच्छण णाम किं तत्कृतं न कृतं वा पुच्छावेति अण्णे ... ग्लानं पुच्छति–कि ते वट्टति ? ण वट्टइ वा ? ५- सू० १.६.२१ टी० पृ० १८२ : तत्र गृहस्थगृहे कुशलादिप्रच्छनं आत्मीयशरीरावयवप्रच्छ (पुच्छ) नं वा । ६-(क) नि० ३.२२ : जे भिक्खू अप्पणो कायं आमज्जेज्ज वा पमजेज्ज वा। (ख) नि० ३.६८ : जे भिक्खू अप्पणो कायाओ सेयं वा, जल्लं वा, पंकं वा, मलं वा णीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा। ७-उत्त० २.३६-३७ : किलिन्नगाए मेहावी, पंकेण व रएण वा । घिसु वा परितावेण, सायं नो परिदेवए । वेएज्ज निज्जरापेही, आरियं धम्मणुत्तरं । जाव शरीरभेउ त्ति, जल्लं काएण धारए । ८–नि० ३.२२-२७ : जे भिक्खू अप्पणो कायं आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, आमज्जंतं वा पमज्जतं वा सातिज्जति । जे भिक्खू अप्पणो कार्य संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा, संवाहेंतं वा पलिम तं वा सातिज्जति ॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्य तेल्लेण वा, घएण वा वसाए वा, णवणीएण वा अभंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा, अब्भेगेतं वा मक्खेंतं वा सातिज्जति ॥ जे भिक्खू अप्पणो कायं लोद्धेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा, उवटेज्ज वा, उल्लोलेंतं वा उबटेंत वा सातिज्जति । जे भिक्खू अप्पणो कायं सीयोदग-वियडेण वा उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोवेंतं वा सातिज्जति । जे भिक्खू अप्पणो कार्य फूमेज्ज वा रएज्ज वा, फूतं वा रएतं वा सातिज्जति । Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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