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दसवेलियं ( दशवेकालिक )
२२. देह प्रलोकन ( देहपलोषणा ) :
जिनदास महत्तर ने इसका अर्थ किया है-दर्पण में रूप निरखना । हरिभद्र सूरि ने इसका अर्थ किया है 'दर्पण आदि में शरीर देखन!' । शरीर पात्र, दर्पण, तलवार, मणि, जल, तेल, मधु, घी, फाणित -राब, मद्य और चर्बी में देखा जा सकता है । इनमें शरीर देखना अनाचार है और निर्ग्रन्थ के ऐसा करने पर प्रायश्चित्त का विधान है ।
श्लोक ४ :
२३. अष्टापद ( अट्ठावए ) :
दशकालिक के व्याख्याकारों ने इसके तीन अर्थ किये हैं । (१) ।
(२) एक प्रकार का द्यूत ।
(२) अर्थ-पद-अर्थ-नीति ।
और अष्टापद
शीलाङ्क सूरि ने सूत्रकृत में प्रयुक्त 'अट्ठावय' का मुख्य अर्थ - अर्थ शास्त्र और गौण अर्थ द्यूत-क्रीड़ाविशेष किया है५ । बहत्तर कलाओं में 'जुयं'– द्यूत दसवीं कला है और 'अट्ठावय' - अष्टापद तेरहवीं कला है । इसके अनुसार द्यूत एक नहीं है।
जिनदास महत्तर और हरिभद्र सूरि ने 'अष्टापद' का अर्थ द्यूत किया है तथा अगस्त्यसिंह स्थविर और शीलाङ्क सूरि ने उसका अर्थ एक प्रकार का द्यूत किया है । इसे आज की भाषा में शतरंज कहा जा सकता है । द्यूत के साथ द्रव्य की हार-जीत का लगाव होता है अतः वह निर्ग्रन्थ के लिए सम्भव नहीं है । शतरंज का खेल प्रधानतया आमोद-प्रमोद के लिए होता है। यह छूत की अपेक्षा अधिक सम्भव है इसलिए इसका निषेध किया है—ऐसा प्रतीत होता है ।
निशी भूमिकार ने 'बाप' का अर्थ संक्षेप में छूत या उरंग यूत किया है और वैकल्पिक रूप में इसका अर्थ-अगद किया है। किसी ने पूछा - भगवन् ! क्या सुभिक्ष होगा ? श्रमण बोला- मैं निमित्त नहीं जानता पर इतना जानता हूँ कि इस वर्ष प्रभात
१- जि०
० चू० पृ० ११३ : पलोयणा नाम अद्दागे रूवनिरिक्खणं । हा० टी० प० ११७ 'लोक' भावनावरितम्।
२- नि० १३.३१-३८ : जे भिक्खू मत्तए अप्पाणं बेहति, देहंतं वा सातिज्जति ।
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" अद्दाए
असीए
मणीए उड्डुपाणे, तेल्ले
फाणिए
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अध्ययन ३ इलोक ४ टि० २२-२३
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३ - जि० चू० पृ० ११३ : अट्ठावयं जूयं भण्णइ |
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(क) अ० ० ० ६० वा
रावा
त्यागं वा अट्ठावयं देति फेरियो कालो ? लि पुति भगति ण पाणामि, आगमेस पुण गुणका वि सालिकू ण भुजति ।
(ख) हा० डी० प० ११७ अर्थदं वा गृहस्थमधिकृत्य नीत्यादिविययम् ।
५०] १.२.१७ १० १८१ अाला अर्धते इत्यर्थो धनधान्यहिरण्यादिकः पद्यते गम्यते येनार्थस्तत्पदं
शास्त्र अथर्वपदमपदं चाणावादिकमर्थशास्त्र तन्न शिक्षेत्' नाभ्यस्येत् नाप्यपरं प्राभ्युपमदंकारि शास्त्र शिक्षपेत् परिया'अष्टापदं यूतक्रीडाविशेषस्तं न शिक्षेत नापि पूर्वशिलितमनुशीलयेदिति ।
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६- नया० १.२० ।
७- नि० १३.१२ चू० २१ : अट्ठावदं जूतं । नि० भा० ४२७६ चू० अट्ठापदं चउरंगेहि जूतं ।
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