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________________ खुड्डियायारकहा (क्षुल्लिकाचार-कथा ) अध्ययन ३: श्लोक ४ टि० २४ काल में कुत्ते भी दध्यन्न खाना नहीं चाहेंगे। यह अर्थ-पद है । इसकी ध्वनि यह है कि सुभिक्ष होगा। अगस्त्यसिंह भी यही अर्थ करते हैं। दुसरे अर्थ की अपेक्षा पहला अर्थ ही वास्तविक लगता है और चउरंग शब्द का प्रयोग भी महत्वपूर्ण है । वावदेर लिन्हे ने इस चउरंग (चतुरंग) शब्द को ही शतरंज का मूल माना है । मनमथ राय ने अष्टपद को शतरंज या उसका पूर्वज खेल माना है। वे लिखते हैं"उन दिनों शतरंज का आविष्कार हुआ था या नहीं, इस विषय में कुछ संदेह है, तथापि प्राचीन पाली और प्राकृत-साहित्य में 'अठ्ठपद' और 'दस-पद' शब्दों का बारम्बार उल्लेख हुआ है। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन जी ने इनको एक प्रकार का जुआ' कहकर अपना पिंड छुड़ाया है । सुमंगल विलासीनि से पता चलता है कि पटरी पर आठ या दस छोटे-छोटे चौकोर खाने बने रहते थे, तथा प्रत्येक खाने में एक एक गोटी होती थी। ऐसी दशा में यह समझना गलत नहीं होगा। कि यह एक प्रकार का शतरंज का खेल रहा होगा। कम से कम हम लोग इसे शतरंज का पूर्वज मान सकते हैं। इसका अंग्रेजी नाम 'ड्राफ्ट' है। प्राचीन मिस्र में यह खेल प्रचलित था।" अन्यतीथिक, परिव्राजक व गृहस्थ को अष्टापद सिखाने वाला भिक्षु प्रायश्चित्त का भागी होता है। २४. नालिका ( नालीय ) : ___ यह द्यूत का ही एक विशेष प्रकार है । 'चतुर खिलाड़ी अपनी इच्छा के अनुकूल पासे न डाल दे'- इसलिए पासों को नालिका द्वारा डालकर जो जुआ खेला जाये उसे नालिका कहा जाता है । यह अगस्त्य 'णि की त्याख्या है। जिनदास महत्तर और हरिभद्र सुरि के अभिमत इससे भिन्न नहीं है। सूत्रकृताङ्ग में 'अट्ठावय' का उल्लेख श्रु० १ अ०६ के १७ वें श्लोक में और 'णालिय' का उल्लेख १८ वें श्लोक में हुआ है और उसका पूर्ववर्ती शब्द 'छत्र' है। । दशवकालिक में 'णालिय' शब्द 'अट्ठावय' और 'छत्त' के मध्य में है । सम्भव है 'अट्ठावय' की सन्निधि के कारण व्याख्याकारों ने नालिका का अर्थ द्यूतविशेष किया हो किन्तु 'छत्तस्स' के आगे 'धारणट्ठाए' का प्रयोग है। उसकी ओर ध्यान दिया जाए तो 'नालिका' का सम्बन्ध छत्र के साथ जुड़ता है। जिसका अर्थ होगा कि छत्र को धारण करने के लिये नालिका रखना अनाचार है। भगवान् महावीर साधना-काल में वज्रभूमि में गए थे। वहां उन्हें ऐसे श्रमण मिले जो कुत्तों से बचाव करने के लिए यष्टि और नालिका रखते थे । वृत्तिकार ने यष्टि को देह-प्रमाण और नालिका को देह से चार अंगुल अधिक लंबा कहा है । भगवान् ने दूसरों को डराने का निषेध किया है। इसलिये संभव है स्वतन्त्ररूप से या छत्र-धारण करने के लिये नालिका रखने का निषेध किया हो। १-नि० भा० गा० ४२८० चू० : अहवा -- इमं अट्ठापदं -अम्मे ण वि जाणामो पुट्ठो अट्ठापयं इमं बेंति । सुणगा वि सालिकूर, णेच्छन्ति परं पभातम्मि । पुच्छितो अपुच्छितो .... एतियं पुण जाणामो परम पभायकाले दधिकरं सुणगा वि खातिउं णेच्छिहिति । अर्थपदेन ज्ञायने सुभिक्खं । २- प्राचीन भारतीय मनोरंजन पृ० ५८ । ३-नि० १३.१२ : जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारस्थियं वा.... 'अट्ठावयं......."सिक्खावेति, सिक्खावेत वा सातिज्जति । ४-अ० चू० पृ० ६१: णालिया जूयविसेसो, जत्थ 'मा इच्छितं पाहिति' त्ति णालियाए पासका दिज्जंति । ५- (क) जि० चू० पृ० ११३ : पासाओ छोढूण पाणिज्जति, मा किर सिक्खागुणेण इच्छंतिए कोई पाडेहिति । (ख) हा० टी० प० ११७ : 'नालिका चे' ति द्यूतविशेषलक्षणा, यत्र मा भूत्कलयाऽन्यथा पाशकपातनमिति नलिकया पात्यन्त इति । ६-सू० १.६.१८ : पाणहाओ य छत्तं च, णालीयं बालवीयणं । ७-आ० ६.३.५,६ : एलिक्खए जणा भुज्जो, बहवे वज्जभूमि फरसासी। लट्ठि गहाय णालियं, समणा तत्थ एव विहरिसु॥ एवंपि तत्थ विहरता पुटपुटवा अहेसि सुणएहि । संलुंचमाणा सुणएहि दुच्चरगाणि तत्थ लाहिं ।। ८--आ० ६.३.५,६ टीका : ततस्तत्रान्ये श्रमणाः शाक्यादयो यष्टि-देहप्रमाणां चतुरंगुलाधिक प्रमाणां वा नालिकां गृहीत्वा श्वादिनिषेधनाय विजह रिति । ९-नि० ११.६५ : जे भिख्खू परं बोभावेति, बीभावतं वा सातिज्जति। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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