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दसवेलियं ( दशवैकालिक )
६६ अध्ययन ३ : श्लोक ४ टि० २५ नालिका का अर्थ छोटी या बड़ी डंडी भी हो सकता है । जहाँ नालिका का उल्लेख है, वहां छत्र धारण, उपानत् आदि का भी उल्लेख है । चरक में भी पद धारण, छत्र-धारण, दण्ड-धारण आदि का पास-पास में विधान मिलता है ।
नालिका नाम घड़ी का भी है। प्राचीन काल में समय की जानकारी के लिए नली वाली रेत की घड़ी रखी जाती थी । ज्योतिष्करण्ड में नालिका का प्रमाण बतलाया है । कौटिल्य अर्थशास्त्र में नालिका के द्वारा दिन और रात को आठ-आठ भागों में विभक्त करने का निरूपण मिलता है' ।
नालिका का एक अर्थ मुरली भी है। बांस के मध्य में पर्व होते हैं । जिस बांस के मध्य में पर्व नहीं होते, उसे 'नालिका', लोकभाषा में मुरली कहा जाता है ।
प्रयोग हुआ है इसलिये कल्पनाएँ हो सकती हैं।
जैन साहित्य में नालिका का अनेक अर्थों में जम्बूदीप प्रज्ञप्ति ( २ ) में बहत्तर कलाओं के
नाम है वहाँ त (य) दसवीं अष्टापद (वय) तेरहवीं और नालिका खेल ( नालिया खेड ) छियासठवीं कला है । वृत्तिकार ने द्यूत का अर्थ साधारण जुआ, अष्टापद का अर्थ सारी फलक से खेला जाने वाला जुआ और नालिका खेल का अर्थ इच्छानुकुल पासा डालने के लिए नालिका का प्रयोग किया जाये वैसा द्यूत किया है ।
इससे लगता है कि अनाचार के प्रकरण में नालिका का अर्थ द्यूत विशेष ही है ।
२५. छत्र धारण करना ( छत्तस्स य धारणट्ठाए
ख ) :
वर्षा तथा आतप निवारण के लिए जिसका प्रयोग किया जाय, उसे 'छत्र' कहते हैं । सूत्रकृताङ्ग में कहा है- "छत्र को कर्मोत्पादन का कारण समझ विज्ञ उसका त्याग करे ।" प्रश्नव्याकरण में छत्ता रखना साधु के लिए अकल्य कहा है । यहाँ छत्र धारण को अनाचरित कहा है। इससे प्रकट है कि साधु के लिए छत्र का धारण करना निषिद्ध रहा है ।
१- अधिकरण १ प्रकरण १६ : नालिकाभिरह रष्टधा रात्रिश्च विभजेत् ।
२ – (क) नि० भा० गा० २३६ : सुप्पे य तालवेटे, हत्थे मत्ते य चेलकण्णे य ।
अच्छि मे पव्वए, णालिया चैव पत्ते य ॥
(ख) नि० भा० गा० २३६ चू० पृ० ८४ : पव्वए त्ति वंसो भण्णति, तस्स मज्झे पव्वं भवति, णालियत्ति अपव्वा भवति, सा पुण लोए 'मुरली' भण्णति ।
१३ दशवेकालिक के व्याख्याकार और जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति के व्याख्याकार नालिका के अर्थ में एकमत नहीं हैं। ये उनके व्याख्या
शब्दों से (जो यहाँ उद्धृत हैं) जाना जा सकता है।
(क) जम्बू० वृति पत्र० १३० १३९ यूतं सामान्यतः प्रतीतम् अष्टापदंसारिक
:
तद्विषयकका मालिका
द्यूतविशेषं मा भूदिष्टदायविपरीतपाशक निपातनमितिनासिकया यत्र पाशकः पात्यते तचणे सत्यपि अभिनिवेशनिबन्धनत्वेन नालिका खेलं आधान्यज्ञापनार्थं भेदेन ग्रहः ।
(स) हा० टी० प० ११७ अष्टापदेन सामान्यतो द्यूतपणे सत्यप्यभिनिवेशनिबन्धनत्वेन नासिकायाः प्राधान्यख्यापनायें देन उपादानम् अर्थपदमेवोक्तार्थं तदित्यन्ये अभिदधति, अस्मिन् पक्षे सकलद्यूतोपलक्षणार्थं नालिकाग्रहणम्, अष्टापदद्यूतविशेषपक्षे चोभयोरिति ।
४- ( क ) अ० चू० पृ० ६१ छत्तं आतववारणं । (ख) जि०
५- सू० १.२.१० पाहाओ
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० चू० पृ० ११३ : छत्तं नाम वासायवनिवारणं ।
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तं विज्जं परिजाणिया ||
"तदेतत्सर्वं 'विद्वान् पण्डितः कर्मोपादानकारणत्वेन ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यान
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X Xx हो० आतपादिनिवारणाय द परिया परिहरेदिति ।
६ - प्रश्न ० सं० ५ : न जाण-जुग्ग-सयणाइ ण छत्तंक "कष्णइ मणसावि परिघेत्तुं ।
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