SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा ) ६७ अध्ययन ३ : श्लोक ४ टि० २५ आचाराङ्ग में कहा है-श्रमण जिनके साथ रहे उनकी अनुमति लिए बिना उनके छत्र यावत् चर्म-छेदनक को न ले। इससे प्रकट होता है कि साधु छत्र रखते और धारण करते थे। आगमों के इन विरोधी विधानों की परस्पर संगति क्या है, यह एक प्रश्न है। कोई समाधान दिया जाय उसके पहले निम्न विवेचनों पर ध्यान देना आवश्यक है : (१) चणियों में कहा है .....'अकारण में छत्र-धारण करना नहीं कल्पता, कारण में कल्पता है ।" कारण क्या समझना चाहिए । इस विषय में चणियों में कोई स्पष्टीकरण नहीं है। यदि वर्षा और आतप को ही कारण माना जाय और इनके निवारण के लिए छत्र-धारण कल्पित हो तो यह अनाचार ही नहीं टिकता क्योंकि इन परिस्थितियों के अतिरिक्त ऐसी कोई दूसरी परिस्थिति साधारणत: कल्पित नहीं की जा सकती जब छाता लगाया जाता हो। ऐसी परिस्थिति में चूणियों द्वारा प्रयुक्त 'कारण' शब्द किसी विशेष परिस्थिति का द्योतक होना चाहिए, वर्षा या आतप जैसी परिस्थितियों का नहीं । इस बात की पुष्टि स्वयं पाठ से ही हो जाती है। यहाँ पाठ में 'छत्तस्स य' के बाद में 'धारणाए' शब्द और है। 'अढाए' का तात्पर्य—अर्थ या प्रयोजन है । भावार्थ हुआ-अर्थ या प्रयोजन से छत्ते का धारण करना अर्थात् धूप या वर्षा से बचने के लिए छत्र का धारण करना अनाचार है । (२) टीकाकार लिखते हैं-अनर्थ-बिना मतलब अपने या दूसरे पर छत्र का धारण करना अनाचार है=आगाढ़ रोगी आदि के द्वारा छत्र-धारण अनाचार नहीं है । प्रश्न हो सकता है टीकाकार अनर्थ छत्र धारण करने का अर्थ कहाँ से लाए? इसका स्पष्टीकरण स्वयं टीकाकार ने ही कर दिया है। उनके मत से सूत्र-पाठ अर्थ की दृष्टि से "छत्तस्स य धारणमणट्ठाए' है। किन्तु पद-रचना की दृष्टि से प्राकृत शैली के अनुसार अनुस्वार, अकार और नकार का लोप करने से “छत्तस्स य धारगट्ठाए" ऐसा पद शेष रहा है। साथ ही वे कहते हैं ---परम्परा से ऐसा ही पाठ मान कर अर्थ किया जाता रहा है। अतः श्रुति-प्रमाण भी इसके पक्ष में है। इस तरह टीकाकार ने 'अट्ठाए' के स्थान में 'अणट्ठाए' शब्द ग्रहण कर अर्थ किया है। उनके अनुसार गाढ़ रोगादि अवस्था में छत्र धारण किया जा सकता है और वह अनाचार नहीं है। (३) आगमों में इस सम्बन्ध में अन्यत्र प्रकाश नहीं मिलता। केवल व्यवहार सूत्र में कहा है : "स्थविरों को छत्र रखना कल्पता हैं। उपर्युक्त विवेचन से निम्न निष्कर्ष निकलते हैं : (१) वर्षा और आतप निवारण के लिए साधु के द्वारा छत्र-धारण करना अनाचार है। (२) शोभा महिमा के लिए छत्र-धारण करना अनाचार है। (३) गाढ़ रोगादि की अवस्था में छत्र धारण-करना अनाचार नहीं। (४) स्थविर के लिए भी छत्र-धारण करना अनाचार नहीं। ये नियम स्थविर-कल्पी साधु को लक्ष्य कर किए गये है। जिन-कल्पी के लिए हर हालत में छत्र-धारण करना अनाचार है। छत्ता धारण करने के विषय में बौद्ध-भिक्षुओं के नियम इस प्रकार हैं। नीरोग अवस्था में छत्ता धारण करना भिक्षुणी के लिए १–आ० चू० ७.३ : जेहिवि सद्धि संपवइए तेसिपि जाइ भिक्ख छत्तग वा, मत्तयं वा, दंडगं वा, लट्ठियं वा, भिसियं वा, नालियं वा, चेल वा, चिलमिलि वा, चम्मयं वा, चम्मकोसयं वा, चम्छेयणगं वा-- तेसिं पुवामेय ओग्गहं अण णुण्णविय अपडिलेहिय अपमज्जिय णो गिण्हेज्ज वा पगिण्हेज्ज वा .... .... .... ..." । २-(क) अ० चू० पृ० ६१ : तस्स धारणकारणे ण कम्पति । (ख) जि० चू० पृ० ११३ : छत्तं ...." अकारणे धरिउ न कप्पइ, कारणेण पुण कप्पति । ३-मिलाएँ : Dasavcaliya sutta (K. V. Abhyankar) 1938 : Notes chap. III p. 11 : "The writer of the vritti translates the word as EITT AFA, and explains it as 'holding the umbrella for a purpose'." ४ हा० टी० ५० ११७ : 'छत्रस्य च' लोकप्रसिद्धस्य धारणमात्मानं परं वा प्रति अनर्थाय इति, आगाढग्लानाद्यालम्बनं मुक्त्वा ऽनाचरितम्। ५-हा० टी० ५० ११७ : प्राकृतशेल्या चात्रानुस्वारलोपोऽकारनकारलोपौ च द्रष्टव्यौ, तथाश्रुतिप्रामाण्यादिति । ६– व्यव० ८.५ : थेराणं थेरभूमिपत्ताणं कप्पइ दंडए वा भंडए वा छत्तए वा । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy