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________________ दसवेआलियं ( दशवैकालिक ) ६८ 1 अध्ययन ३ श्लोक ४ टि० २६ दोषकारक था' । भिक्षु पहले छत्ता धारण नहीं करते थे। एक बार संघ को छत्ता मिला । बुद्ध ने छत्ते की अनुमति दी । षड्वर्गीय भिक्षु छत्ता लेकर टहलते थे | उस समय एक बौद्ध उपासक बहुत से यात्री आजीवकों के अनुयायियों के साथ बाग में गया था। उन आजीवकअनुवादियों ने षड्वर्गीय भिक्षुओं को छत्ता धारण किये आते देखा देखकर वे उस उपासक से बोले "आसो ! यह तुम्हारे भदन्त हैं, छत्ता धारण करके आ रहे हैं, जैसे कि गणक महामात्य ।" उपासक बोला: आर्यो ! ये भिक्षु नहीं हैं, ये परिव्राजक हैं ।" पर पास में आने पर वे बौद्ध भिक्षु ही निकले। उपासक हैरान हुआ-- 'कैसे भदन्त छत्ता धारण कर टहलते हैं !" भिक्षुओं ने उपासक के हैरान होने बात बुद्ध से कही। बुद्ध ने नियम किया "भिक्षुओ ! छत्ता न धारण करना चाहिए। यह दुक्कट का दोष है ।" बाद में रोगी को छत्ते के धारण की अनुमति दी। बाद में अरोगी को आराम में और आराम के पास छत्ता धारण की अनुमति दी । २६. चैकस्य ( गि" ) पुर्णिकार और टीकाकार ने बैंक का अर्थ 'रोगप्रतिकर्म' अथवा 'व्याधिप्रतिक्रिया किया है अर्थात् रोग का प्रतिकार करना---उपचार करना चकित्स्य है । उत्तराध्ययन में कहा है : रोग उत्पन्न होने पर वेदना से पीड़ित साधु दीनतारहित होकर अपनी बुद्धि को स्थिर करे और उत्पन्न रोग को समभाव से सहन करे । आत्मशोधक मुनि चिकित्सा का अभिनन्दन न करे । चिकित्सा न करना और न कराना -यही निश्चय से उसका श्रामण्य है ।" निर्ग्रन्थों के लिए निष्प्रतिकर्मता - चिकित्सा न करने का विधान रहा है। यह महाराज बलभद्र, महारानी मृगा और राजकुमार मृगापुत्र के संवाद से स्पष्ट है । माता-पिता ने कहा : "पुत्र ! श्रामण्य में निष्प्रतिकर्मता बहुत बड़ा दुःख है । तुम उसे कैसे सह सकोगे ? " मृगापुत्र बोला: "अरण्य में पशु-पक्षियों के रोग उत्पन्न होने पर उनका प्रतिकर्म कौन करता है ? कौन उन्हें औषध देता है ? कौन उनसे सुख पूछता है ? कौन उन्हें भोजन - पानी लाकर देता है ? जब वे सहज भाव से स्वस्थ होते हैं, तब भोजन पाने के लिए निकल पड़ते हैं । माता ! पिता ! मैं भी इस मृगचर्या को स्वीकार करना चाहता हूँ ।" १- विनयपिटक भिक्खुनी पातिमोक्ख : छत्त वग्ग ss ४.८४ १० ५७ ॥ २- विनयपिटक चुल्लवग्ग ५६३.३ पृ० ४.३८ - ३६ ३ - ( क ) अ० चू० पृ० ६१ : तेगिच्छं रोगपडिकम्मं । (ख) जि० चू० पृ० ११३ : तिगिच्छा णाम रोगपडिकम्म करेइ । (ग) हा० टी० प० ११७ : चिकित्साया भावश्चकित्स्यं व्याधिप्रतिक्रियारूपमनाचरितम् । ४- उत्त० २.३२-३३ : नच्या उप्पइयं दुम बेवाए दुहट्टिए । अदोषो धावए पानं तत्हा ।। तेगिच्छं नाभिनन्देज्जा, संचिक्खत्तगवेसए । एवं खु तस्स सामण्णं, जं न कुज्जा न कारवे ॥ ५. -उत्त० १६.७५, ७६, ७८, ७६ : 2 तं सम्मापिय पदे पुस ! पव्वया । नवरं पुण सामण्णे, दुक्खं निप्पडिकम्मया ॥ सोबत म्मापियरो !, एवमेयं जहाफुडं । पडिकम्मं को कुणई, अरण्णं मियपक्खिणं ? | जया मिगस्स आपको, महारष्णम्मि जापाई अन्तं मूलम्मि को ताहे तिमच्छिई ? ॥ कोया से ओहद को वा से पुच्छई सुहं ? | को से भत्तं च पाणं च आहरित पणामए ॥ 1 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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