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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
अध्ययन ३ : श्लोक ३ टि० १६-२१ नहीं लेना चाहिए । अन्य राजाओं के लिए विकल्प है-दोष की सम्भावना हो तो न लिया जाये और सम्भावना न हो तो ले लिया जाए।
राजघर का सरस भोजन खाते रहने से रस-लोलुपता न बढ़ जाये और 'ऐसा आहार अन्यत्र मिलना कठिन है' यों सोच मुनि अनेषणीय आहार लेने न लग जाये--इन सम्भावनाओं को ध्यान में रख कर 'राज पिण्ड' लेने का निषेध किया है। यह विधान एषणाशुद्धि की रक्षा के लिए है। ये दोनों कारण उक्त दोनों सूत्रों की चूणियों में समान हैं। इनके द्वारा 'किमिच्छक' और 'राजपिण्ड' के पृथक् या अपृथक् होने का निर्णय नहीं किया जा सकता।
निशीथ-णिकार ने आकीर्ण दोष को प्रमुख बतलाया है। राज-प्रासाद में सेनापति आदि आते-जाते रहते हैं। वहाँ मुनि के पात्र आदि फूटने की तथा चोट लगने की संभावना रहती है इसलिए 'राजपिण्ड' नहीं लेना चाहिए आदि-आदि।
___ निशीथ' के आठवें उद्दे शक में 'राजपिण्ड' से सम्बन्ध रखने वाले छः सूत्र हैं और नवें उद्देशक में बाईस सूत्र हैं५ ।'दशवकालिक' में इन सबका निषेध 'राजपिण्ड' और 'किमिच्छक' इन दो शब्दों में मिलता है। मुख्यतया 'राजपिण्ड' शब्द राजकीय भोजन का अर्थ देता है और 'किमिच्छक' शब्द 'अनाथपिण्ड', 'कृपणपिंड' और 'वनीपपिंड' (निशीथ ८.१६) का अर्थ देता है। किन्तु सामान्यतः 'राजपिंड' शब्द में राजा के अपने निजी भोजन और राजसत्क' भोजन ---राजा के द्वारा दिये जाने वाले सभी प्रकार के भोजन, जिनका उल्लेख निशीथ के उक्त सूत्रों में हुआ है --का संग्रह होता है। व्याख्या-काल में 'राजपिंड' का दुहरा प्रयोग हो सकता है --स्वतन्त्र रूप में और 'किमिच्छक' के विशेष्य के रूप में। इसलिए हमने 'राजपिंड' और 'किमिच्छक' को केवल विशेष्य-विशेषण न मानकर दो पृथक अनाचार माना है और 'किमिच्छक' की व्याख्या के समय दोनों को विशेष्य-विशेषण के रूप में संयुक्त भी माना है। १६. संबाधन ( संवाहणा ग ) : इसका अर्थ है-मर्दन । संबाधन चार प्रकार के होते हैं :
(१) अस्थि-सुख-हड्डियों को आराम देने वाला । (२) मांस-सुख-मांस को आराम देने वाला। (३) त्वक्-सुख-चमड़ी को आराम देने वाला।
(४) रोम-सुख--- रोओं को आराम देने वाला। २०. दंत-प्रधावन (दंतपहोयणा ग ) :
देखिए ‘दंतवण' शब्द का टिप्पण संख्या ४५ । २१. संप्रच्छन ( संपुच्छरणा घ ) :
____ 'संपुच्छगो' पाठान्तर है । 'संपुच्छणा' का संस्कृत रूप 'संप्रश्न' और संपूछगो' का संस्कृत 'संप्रोञ्छक' होता है। इन अनाचीर्ण के कई अर्थ मिलते हैं : (१) अपने अंग-अयवयों के बारे में दूसरे से पूछना। जो अङ्ग-अवयव स्वयं न दीख पड़ते हों, जैसे आँख, सिर, पीठ आदि
उनके बारे में दूसरे से पूछना-ये सुन्दर लगते हैं या नहीं ? मैं कैसा दिखाई दे रहा हूँ ? आदि, आदि । (२) गृहस्थों से सावध आरम्भ सम्बन्धी प्रश्न करना ।
१-नि० भा० गा० २४९७० : २-सू०१.३.३.८-१६ । ३-नि०भा० गा० २५०३-२५१० । ४-नि० ८.१४-१६। ५.-नि० ६.१,२,६,८,१०,११,१३-१६,२१-२६ । ६-(क) अ० चू० पृ० ६० : संवाधणा अट्ठिसुहा मंससुहा तयासुहा (रोमसुहा)।
(ख) जि० चू० पृ० ११३ : संवाहणा नाम चउन्विहा भवति, तजहा-अट्ठिसुहा मंससुद्दा तयासुहा रोमसुहा । (ग) हा० टी० ५० ११७ ।
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