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दसवेआलियं (दशवकालिक)
अध्ययन ३ : आमुख १३ किमिच्छक (क्या चाहिए ? ऐसा २७ - गहि-निषद्या (गृही के घर बैठना) ३६---सचित्त बीज पूछ कर दिया हुआ आहार आदि)
२८-- गात्र-उद्वर्तन (शरीर मालिश) ४०... सचित्त सौवर्चल लवण १४ - संबाधन (शरीर-मर्दन)
२६-गहि-वयात्त्य (गृहस्थ की सेवा) ४१-- सचित्त संघव लवण १५- दंत-प्रधावन (दांतों को धोना)
३०-आजीववृत्तिता (शिल्प आदि से ४२-- सचित्त लवण १६-संपृच्छन (गृहस्थों से सावध प्रश्न)
आजीविका)
४३ - सचित्त रुमा लवण १७ --देह-प्रलोकन (आईने आदि में शरीर
३१- तप्तानि तभोजित्व (अनित खान- ४४ . सचित्त सामुद्र लवण देखना)
पान)
४५.. सचित्त पशु-क्षार लवण १८-अष्टापद (शतरंज खेलना)
३२.--आतुर-स्मरण अथवा आत-शरण ४६ सचित्त कृष्ण लवण १६...-नालिका (द्यूत विशेष)
(पूर्व भोगों का स्मरण अथवा ४७.--धूमनेत्र (धूम्रपान) २०-छत्र-धारण
चिकित्सालय में शरण लेना) ४८-- वमन २१---चिकित्सा ३३--- सचित्त मूलक
४६--- वस्तिकर्म २२ उपानह पहनना
३४. सचित्त शृगबेर (अदरक) ५०. विरेचन २३. अग्नि-समारम्भ २४-शय्यातर-पिण्ड (वसति दाता का ३५ - सचित्त इक्षु-खण्ड
५१. अंजन आहार लेना) ३६- सचित्त कन्द
५२--दन्तवन २५-.आसंदी का व्यवहार ३७. सचित्त मूल
५३--- गात्राभ्यङ्ग २६–पर्यङ्क (पलंग का व्यवहार) ३८-सचित्त फल
५४ --- विभूपा। अनाचारों की संख्या बावन अथवा तिरपन होने की परम्पराएं भी प्रचलित हैं। बावन और तिरपन की संख्या का उल्लेख पहले-पहल किसने किया, यह अभी शोध का विषय है ।
तिरपन की परम्परावाले 'राज पिण्ड' और 'किमिच्छक' को एक मानते हैं। बावन की एक परम्परा में 'अासन्दी' और 'पर्यङ्क' तथा 'गावाभ्यङ्ग' और 'विभूषण' को एक-एक माना गया है । इसकी दूसरी परम्परा 'गात्राभ्यङ्ग' और 'विभूषण' को एक मानने के स्थान में लवरण को 'संधव' का विशेषण मान कर दोनों को एक अनाचार मानती है।
इस प्रकार उक्त चार परम्पराएँ हमारे सामने हैं। इनमें संख्या का भेद होने पर भी तत्त्वतः कोई भेद नहीं है।
परन्तु प्रागम के छठे अध्ययन में प्रथम चार अनाचारों का संकेत 'अकल्प्य' शब्द द्वारा किया गया है। वहीं केवल 'पलियंक' शब्द के द्वारा यासंदी, पर्यङ्क, मंच, अाशाल कादि को संगृहीत किया गया है। इसके आधार पर कहा जा सकता है कि उपर्युक्त अनाचारों में कुछ स्वतन्त्र हैं और कुछ उदाहरणस्वरूप। सौवर्चल, सैधव आदि नमक के प्रकार स्वतन्त्र अनाचार नहीं किन्तु सचित्त लवण अनाचार के ही उदाहरण हैं।।
इसी तरह सचित्त मूलक, शृगबेर, क्षु-खण्ड, कन्द, मूल, फल, बीज आदि सचित्त वनस्पति नामक एक अनाचार के ही उदाहरण
१–अगस्त्यसिंह चूणि के अनुसार अनाचारों की संख्या ५२ बनती है, क्योंकि इन्होंने राजपिण्ड और किमिच्छक को तथा संधव और लवण को अलग-अलग न मानकर एक-एक माना है ।
जिनदास चुणि के अनुसार भी अनाचारों की संख्या ५२ ही है। इन्होंने राजपिण्ड और किमिच्छक को एक न मानकर अलग अलग माना है तथा सैंधव और लवण को एवं गात्राभ्यङ्ग और विभूषण को एक-एक माना है।
हरिभद्रसूरि एवं सुमतिसाधु सूरि के अनुसार अनाचारों की संख्या ५३ बनती है। इन्होंने राजपिण्ड और किमिच्छक को एक तथा संधव और लवण को अलग-अलग माना है।
आचार्य आत्मारामजी के अनुसार अनाचारों की संख्या ५३ हैं। इन्होंने राजपिण्ड और किमिच्छक को अलग-अलग मान सैधव
और लवण को एक माना है । २-दश० ६.८,४८-५० । ३-दश० ६.८,५४-५६ ।
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