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________________ खुड्डियायारकहा (क्षुल्लिकाचार-कथा) ४१ अध्ययन ३: आमुख कहे जा सकते हैं। सूत्र का प्रतिपाद्य है--सजीव नमक न लेना, सजीव फल, बीज और शाक न लेना । जिनका अधिक व्यवहार होता था उनका नामोल्लेख कर दिया गया है। सामान्यतः सभी सचित्त वस्तुओं का ग्रहण करना अनाचार है । ऐसी दृष्टि से वर्गीकरण करने पर अनाचारों की संख्या कम भी हो सकती है। सूत्रकृताङ्ग' में धोयण (वस्त्र प्रादि धोना), रयण (वस्त्रादि रंगना), पामिच्च (साधु को देने के लिए उधार लिया गया लेना), पूय (अाधाकर्मी अाहार से मिला हुया लेना), कयकिरिए (असंयम अनुष्ठान की प्रशंसा), पसिणायतरणारिण (ज्योतिष के प्रश्नों का उत्तर), हत्थकम्म (हस्तकर्म), विवाय (विवाद), परकिरियं (परस्पर की क्रिया), परवत्थ (गृहस्थ के वस्त्र का व्यवहार) तथा गामकुमारियं किड (ग्राम के लड़कों का खेल) आदि निर्ग्रन्थ के लिए वर्त्य हैं । वास्तव में ये सब अनाचार हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि अनाचारों की जो तालिका प्रस्तुत आगम में उपलब्ध है वह अन्तिम नहीं, उदाहरणस्वरूप ही है। ऐसे अन्य अनाचार भी हैं जिनका यहाँ उल्लेख नहीं पाया जाता किन्तु जो अन्यत्र उल्लिखित और वजित हैं । विवेकपूर्वक सोचने पर ऐसी बातें सहज ही समझ में आ सकती हैं, जिनका अनाचार नाम से उल्लेख भले ही न हो पर जो स्पष्टतः ही अनाचार हैं। ___ अगस्त्यसिंह स्थविर ने औद्देशिक से लेकर विभुषा तक की प्रवृत्तियों को अनाचार मानने के कारणों का निर्देश किया है। वे इस प्रकार हैं कारण अनाचार औद्देशिक क्रीतकृत नित्यान आहुत रात्रिभक्त स्नान गंधमाल्य वीजन सन्निधि गृहस्थ का भाजन जीववध। अधिकरण । मुनि के लिए भोजन का समारंभ। षट्जीवनिकाय का वध । जीववध । विभूषा और उत्प्लावन । सूक्ष्म जीवों की घात और लोकापवाद । संपातिम वायु का वध। पिपीलिका आदि जीवों का वध । अप्कायिक जीवों का वध, कोई हरण कर ले या नष्ट हो जाए तो दूसरा दिलाना होता है। भीड़ के कारण विराधना, उत्कृष्ट भोजन के प्राप्त होने से एषणा का घात । सूत्र और अर्थ की हानि । विभूषा। पाप का अनुमोदन। ब्रह्मचर्य का घात। ग्रहण का अदत्त, लोकापवाद । राजपिड मर्दन दंतधावन संप्रश्न संलोकन द्यूत १-सू० १.६.१२ : धावणं रयणं चेव, वमणं च विरेयणं । " " १४ : उद्देसियं कोयगडं, पामिच्चं चेव आहडं । पूति अणेसणिज्ज च, तं विज्ज! परिजाणिया ॥ " १६ : संपसारी कयकिरिए, पसिणायतणाणि य । " १७ : हत्थकम्मं विवायं च, तं विज्ज ! परिजाणिया ॥ " "१८:परकिरियं अन्तमन्नं च, तं विज्ज! परिजाणिया ॥ " २० : परवत्थं अचेलोऽवि, तं विज्ज ! परिजाणिया ॥ "२६ : गामकुमारियं किड्डं, णाइवेलं हसे मुणी ॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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