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________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) नालिकाद्यूत छत्र चिकित्सा उपानत अग्निसमारंभ शय्यातरपिंड आसन्दी ओर प १७. १८. १६. २०. २१. २२. २३. २४. २५. २६. २७. २८. २६. ३०. ३१. ३२. गृहान्तरनिपया गात्र उद्वर्तन हास्य आजीववृत्तिता तप्तानि तभोजित्व ४२ ग्रहण का अदत्त, लोकापवाद, अहंकार । सूत्र और अर्थ की हानि । गर्व आदि । Jain Education International जीववध | एषणा दोष । शुषिर में रहे जीवों की विराधना की संभावना | ब्रह्मचर्य की अगुप्ति, शंका आदि दोष । विभुपा अधिकरण । आसक्ति । जीववध | दीक्षा त्याग | वनस्पति का घात । पृथ्वीकाय का विघात । विभुषा लोकापवाद । आतुरस्मरण मूल आदि का ग्रहण सौवर्चल आदि नमक का ग्रहण धूपन आदि उत्सर्ग विधि से - सामान्य निरूपण की पद्धति से यहाँ जितने भी प्रग्राह्य, प्रभोग्य, प्रकररणीय कार्य बताये गये हैं वे सारे अनाचार हैं। अपवाद-विधि के अनुसार विशेष परिस्थिति में कुछेक अनाची अनाचीर्ण नहीं रह जाते । जो कार्य मूलतः सावद्य हैं या जिनका हिंसा से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है, वे हर परिस्थिति में अनाचीर्ण हैं, जैसे- सचित्त-भोजन, रात्रि भोजन आदि। जिनका निषेध विशेष विशुद्धि या संयम की उम्र साधना की दृष्टि से हुआ है वे विशेष परिस्थिति में नाचो नहीं रहते, जैसे गुहान्तरनिया ह्मपर्व को दृष्टि से तथा दूसरों के मन में शङ्का न पड़े इस दृष्टि से अनाचार है । रुग्णावस्था, वृद्धावस्था आदि में ब्रह्मचर्य भङ्ग अथवा दूसरे के शंका की संभावना न रहने से स्थविर के लिए यह अनाचार नहीं है। अंजन-विभूषा शृङ्गार की दृष्टि से हर समय अनाचार है पर नेत्र रोग की अवस्था में यह अनाचार नहीं है । सौन्दर्य के लिए वमन, वस्तिकर्म, विरेचन अनाचार हैं, रुग्णावस्था में यह अनाचार नहीं है। शोभा या गौरव के लिए छत्र-धारण अनाचार है । प्रातप आदि के निवारण के लिए भी इसका व्यवहार अनाचार है, पर स्थविर के लिए नहीं । नियुक्तिकार के अनुसार यह अध्ययन नवें पूर्व की तीसरी आजार वस्तु से उबूत है। - १२००० ६२ ६३ उषितं जणावरणकारणाणि उद्देसिले सत्तबो कीलकडे गवादि अहिकरणं, गोताए दुखणं एक्कावह रातिमले सत्तविरोहना, सिणा विभुलाउलावादि गंध मल्ले सुमपाय उड्डाहा, बीपणे संपादिमवायुवहो, समिहीए पिपीलादिवो गिमितं वह हिमपट्ट व दावणं, रामपिण्डे बाहेण विराणा उनकोस य एवणाघातो, संवाहणे सुरा अश्वपतिबंध (अ) भाव (तपोवणे) दंत-विभूसा, सम्पुगे पावाणुमोद, संतोपण बंपीड़ा अट्ठावयमाया गातो उडाहो से उड़ाहो यो तिमिच्छेत्त-अत्पलमंत्र उपाहणाहि गया जोतिसमारम्भे काही सेनातर पिटे एसा दोसा आसिरसा, हिंतरणिजाए अगुती बंगचेरस्त संकावतो व (गाउबचाए गाविभूसा) मिहिन येताडिए अहिकरणं, आजीवविती विसंगता, तत्तानियुभोदयसे सत्तवहो, आउरसर उपादमूलादिग्वस्तात सोच्वनादीर्ण निकायही धूणादिविभूसा एते दोसा इति । -प ४ - भिक्षु ग्रन्थ० ( प्र० ख० ) पृ० ३१३ जिनाग्या री चौपई ५.१५ : २ दश० ६.५ तमन्नरागस मिसेज्जा जस्पद जराए अभिभूयस वाहियस्स तबस्सियो । - ३ - भिक्षु ग्रन्थ० ( प्र० ख० ), पृ० ३४१; निन्ह्वरास १.६२ : अध्ययन ३ : आमुख कारण विनां साधव्यां, काजल घाले आंख्यां रे मांहि कें । अणाचारणी त्यांनें कहो, बसवीकालक तीजा अन रे महि ॥ ५--- नि० गा० १७ : अवसेसा निज्जूढा नवमस्स उ तइयवत्थूओ । छत्तं वा कह्यो छें ते तो छत्तरडो रे, ते कंबलादिक नों कर राखे तांम रे । ते राखे छे सीतापादिक टालवा रे, और मूतलब रो नहीं छे कांम रे ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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