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आमुख
समूचे ज्ञान का सार याचार है । धर्म में जिसकी धृति नहीं होती उसके लिए प्रचार और अनाचार का भेद महत्त्व नहीं रखता । जो धर्म में धृतिमान् है वह श्राचार को निभाता है और अनाचार से बचता है' । निष्कर्ष की भाषा में अहिंसा आचार और हिंसा अनाचार है। शास्त्र की भाषा में जो अनुष्ठान मोक्ष के लिए हो या जो व्यवहार शास्त्र-विहित हो वह ग्राचार है और शेष अनाचार ।
श्राचरणीय वस्तु पांच हैं-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य । इसलिए ग्राचार पाँच बनते हैं- ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तप-ग्राचार और वीर्याचार' ।
प्राचार से ग्रात्मा संयत होती है या जिसकी श्रात्मा संयम से सुस्थित होती है वही श्राचार का पालन करता है । संयम की स्थिरता और चार का गहरा सम्बन्ध है । अनाचार श्राचार का प्रतिपक्ष है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य का शास्त्र - विवि के प्रतिकूल जो ग्रनुष्ठान है वह अनाचार है। मूल संख्या में ये भी पाँच हैं। विवक्षा भेद से प्राचार और अनाचार - इन दोनों के अनेक भेद हैं।
'अनाचार' का अर्थ है प्रतिषिद्धि-कर्म, परिज्ञातव्य - प्रत्याख्यातव्य-कर्म या अनाचीर्ण-कर्म । आचार धर्म या कर्तव्य है और अनाचार धर्म या प्रकर्तव्य ।
इस अध्ययन में अनाचीणों का निषेध कर आचार या चर्या का प्रतिपादन किया है, इसलिए इसका नाम 'श्राचार - कथा' है । इसी सूत्र के छठे अध्ययन (महाचार-कथा) की अपेक्षा इस अध्ययन में प्राचार का संक्षिप्त प्रतिपादन है, इसलिए इसका नाम 'क्षुल्लिकाचार कथा' है।
सूत्रकार ने संख्या निर्देश के बिना बनायारों का उल्लेख किया है। चूरिय तथा वृत्ति में भी संख्या का निर्देश नहीं है। दीपिकाकार चौवन की संख्या का उल्लेख करते हैं । इस परम्परा के अनुसार निर्ग्रन्थ के चौवन अनाचारों की तालिका इस प्रकार बनती है :
१ - औदेशिक (साधु के निमित्त बनाये गये जहारादि का लेना )
२ श्रीकृत साधु के निमिती वस्तु का सेना)
३- नित्याय (निमन्त्रित होकर नित्य आहार लेना)
:
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१ (क) अ० ० ० ४१ (ख) अ० चू० पृ० ४६ (ग) वि० ० ० १२ (घ) हा० डी० प० १००
४ - अभिहृत (दूर से लाये गये आहार आदि ग्रहण करना)
५- रात्रि भोजन
६- स्नान
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५
गन्ध - विलेपन
- माल्य ( माला आदि धारण करना)
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E -वीजन ( पंखादि से हवा लेना ) १० - सन्निधि ( खाद्य, पेय आदि वस्तुओं का संग्रह कर रखना)
११
अमत्र (गृहस्थ के पात्र में भोजन
१२ -- राज- पिण्ड ( राजा के घर का आहार ग्रहण)
पम्मे पितिमतो आधारमुतिस्स फलोरिसोवसंहारे।
इदाणि तु विसेसो नियमिज्जति धिती आयारे करणीय त्ति ।
वाणि यतियस्स आवारो नागियो अहवा सा धितो कहि करेस्या ? आधारे । इह तु सा धृतिराबारे कार्या नयनाचारे, अयमेवात्मसंयमोपाय इत्येतदुच्यते उक्त "तस्यात्मा संयतो यो हि, सदाचारे रतः सदा ।
स एव धुतिमान् धर्मस्तस्यैव च विनोदितः ॥"
२ – ( क ) ठा० ५.१४७
पंचविधे आयारे पं० तं० णाणायारे दंसणायारे चरितायारे तवायारे वीरियायारे । (ख) नि० गा० १८१ : दंसणनाणचरितं तवआयारे य वीरियायारे ।
एसो भावायारो पञ्चविहो होइ नायवी ।
३- नि० गा० १७८ एएस महंताणं पडिवरले सुडा होति ॥
४- ० ० ७ सर्वमेतत् पूर्वोक्तुबमिन्नमद्देशिकादिकं यदनन्तरमुक्तं तत् सर्वमनाचरितं शातव्यम् ।
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