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________________ छज्जीवणिया (षड्जीवनिका ) १४६. पाप को ( पावगं ख ) : जिसके करने से पाप कर्मों का बन्ध हो उसे पापक- - पाप कहते हैं। वह असंयम है' । १४७. कल्याण और पाप (उभयंग) 'उभय' शब्द का अर्थ हरिभद्र ने है । जिनदास ने स्वयं 'कल्याण और पाप दोनों को १६७ अध्यन ४ श्लोक १२-१३ टि० १४६-१४० श्रावकोपयोगी संयमासंयम का स्वरूप' किया है । जिनदास के समय में भी ऐसा मत रहा पाप' इसी अर्थ को ग्रहण किया है। अगस्त्य सिंह ने 'उभय' का अर्थ किया है कल्याण और श्लोक १२-१३ : १४८. श्लोक १२-१३ : जो साधु को नहीं जानता वह असाधु को भी नहीं जानता । जो साधु और असाधु- दोनों को नहीं जानता वह किसकी संगत करनी चाहिए यह कैसे जानेगा ? जो साधु को जानता है वह असाधु को भी जानता है । जो साधु और प्रसाधु- दोनों को जानता है वह यह भी जानता है कि किसकी संगत करनी चाहिए । उसी तरह जो सुनकर जीव को नहीं जानता, वह उसके प्रतिपक्षी अजीव को भी नहीं जान पाता। जो दोनों का ज्ञान नहीं रखना वह संयम को भी नहीं जान सकता । जो सुनकर जीव को जानता है वह उसके प्रतिपक्षी अजीव को भी जान लेता है। जो जीव और अजीव - दोनों को जानता है वह संयम को भी जानता है । संयम दो तरह का होता है- जीव-संयम और अजीव संयम किसी जीव को नहीं मारना यह जीव-संयम है। मद्य, मांस, स्वर्ण आदि जो संयम के घातक हैं, उनका परिहार करना अजीव-संयम है। जो जीव और अजीव को जानता है वही उनके प्रति संयत हो सकता है" । जो जीव-अजीव को नहीं जानता वह संयम को भी नहीं जानता, वह उनके प्रति संयम भी नहीं कर सकता । कहा है- Jain Education International १ (क) अ० चू० पृ० (ख) जि० चू० पृ० (ग) हा० टी० प० २ हा० टी० प० १५८ ३ - जि० ० चू० पृ० १६१ : केइ पुण आयरिया कल्लाणपावयं च देसविरयस्स पावयं इच्छति । ६३: पावकं अकल्लाणं । १६१: जेण य कएण कम्मं बज्झइ तं पावं सो य असंजमो । १५८ : पापकम् असंयम स्वरूपम् । 'उभयमपि संयमासंयमस्वरूपं श्रावकोपयोगि । ४– -अ० चू० पृ० ६३ : उभयं एतदेव कल्लाणं पावगं । ५. - ( क ) अ० ० पृ० ९४ : 'जो' इति उद्देश्वयणं । जीवंतीति 'जीवा' आउप्पाणा घरेंति, ते सरीर-संठाण-संघयण द्वितिजत्तिविसेसह जो ण जाणाति, 'अम्जीवे वि' वरसादिष्यभवपरिणामेहि 'ग' जागति 'सो' एवं जीवा जीवविसेसे 'अजाणतो कह' केण प्रकारेण णाहिति सत्तरसविहं संजमं णाहिति जाणिहिति सव्वपज्जाएहिं । कहूं ? छेदं कूडगं च जाणतो गरिहरणेण वेदस्स उपादागं करेति जीवगतमुपरोहरुतमसंजमं परिहरतो अजीवाण विमज्ज-सादी परिहरणेण संजमापाल करेति जीवे माऊण वहं परिहरमाणो ण वयति वेरं बेरविकारविरहितो पाति निरुवद्दवं थाणं । । (ख) जि० चू० पृ० १६१-६२ : एत्थ निदरिसणं जो साहूं जाणइ सो तापडिपक्खमसाधुर्भाव जाणइ, एवं जस्स जीवाजीवपरिणा अस्थि सो जीवाजीवसंजमं वियाणइ, तत्थ जीवा न हंतव्वा एसो जीवसंजमो भण्णइ, अजीवावि मंसमज्जहिरण्णादिदव्वा संजमोवधाइया ण घेत्तव्वा एसो अजीवसंजमो, तेण जीवा य अजीवा य परिण्णाया जो तेसु संजमइ । (ग) हा० डी० प० १५८ यो 'जीवन' पृथिवीकाधिकविभेदभिन्नान् न जानाति 'अजीवानपि संयोपपातिनो माहिरण्यादीन्न जानाति, जीवाजीवानजानन्कथमसौ ज्ञास्यति 'संयमं ? तद्विषयं तद्विषयाज्ञानाति भावः । ततश्च यो जीवानपि जानात्यजीवानपि जानाति जीवाजीवान् विजानन् स एव ज्ञास्यति संयममिति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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