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________________ and आलियं ( दशवैकालिक ) अध्ययन ४ श्लोक १४-१६ टि० १४-१५१ : १६८ जीवा जस्स परिन्नाया, वेरं तस्स न विज्जइ । न जीवे तो यहं रं च जाग , अर्थात् जिसने जीवों को अच्छी तरह जान लिया है उसके र नहीं होता। जो जीवों को नहीं जानता यह बम और बैर की नहीं जानता नहीं त्याग पाता । श्लोक १४ : १४. लोक १४: चौदह से पचीस तक के श्लोकों में सुनने से लेकर सिद्धि प्राप्ति तक का क्रम बड़े सुन्दर ढङ्ग से दिया गया है। जीव चार गतियों के होते हैं- मनुष्य, नरक, तिर्यञ्च और देव । इन गतियों के बाहर मोक्ष में सिद्ध जीव हैं। जो सुनकर जीवाजीव को जान लेता है वह उनकी इन गतियों को और उनके अन्तर्वेदों को भी सहज रूप से जान लेता है' । श्लोक १५: १५०. श्लोक १५: गतियों के ज्ञान के साथ ही प्रश्न उठता है - सब जीव एक ही गति के क्यों नहीं होते ? वे भिन्न-भिन्न गतियों में क्यों हैं ? मुक्त जीव अतिरिक्त क्यों हैं ? 'कारण के बिना कार्य नहीं होता', अतः गतिभेद के कारण पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष को भी जान लेता है । कर्म दो तरह के होते हैं- पुण्य रूप और पाप रूप । जब पुण्य कर्मों का उदय होता है तो अच्छी गति प्राप्त होती है और जब पाप कर्मों का उदय होता है तो नीच गति प्राप्त होती है। जीव समान होने पर भी पुण्य-पाप कर्मों की विशेषता से नरक, देवादि गतियों की विशेषता होती है । क्योंकि पुण्य-पाप ही बहुविध गतियों के निबन्ध के कारण हैं । जीव कर्म का जो परस्पर बंधन है वह चार गतिरूप संसार में भ्रमण का कारण है । यह भव-भ्रमण दुःखरूप है । जीव और कर्म का जो ऐकान्तिक वियोग है, वह मोक्ष - शाश्वत सुख का हेतु है । जो जीवों की नरक आदि नाना गतियों और मुक्त जीवों की स्थिति को जान लेता है वह उनके हेतुओं और बन्धन तथा मोक्ष के अन्तर और उनके हेतुओं को भी जान लेता है । श्लोक १६: १५१ श्लोक १६: जो भोने जाते हैं उन यादि विषयों को भोग कहते हैं। सांसारिक भोग किपाक फल की तरह भोकाल में मधुर होते हैं परन्तु बाद में उनका परिणाम सुन्दर नहीं होता । जब मनुष्य पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष के स्वरूप को जान लेता है तब वह इन काम-भोगों के १ (क) अ० ० ० १४ जदा जम्मिकाले जीवा अजीवा भणिता ते जदा दो वि विसेसेण जाणति विजाणति, गति णरगादितं अणेगभेदं जाणति, अहवा गतिः (ख) जि० चू० पृ० १६२ : गति बहुविहं नाम एक्केक्का अणेगभेया जाणति, अहवा उवएसेण जाणई । (ब) हा० टी० प० १५१'' पर काले जीवनजीवांश्च द्वावप्येतौ विजानाति विविधं जानाति तदा तस्मिन् काले 'यति' नरकादिरूपां 'बहुविधां स्वपरगत भेदेनानेकप्रकारां सर्वजीवानां जानाति यथाऽवस्थित जीवाजीवपरिज्ञानमन्तरेण गतिपरिज्ञानाभावात् । २ (क) अ० चू० पृ० १४ : तेसिमेव जीवाणं आउ-बल- विभव सुखातिसूतितं पुण्णं च पावं च अट्ठविहकम्मणिगलबंधण मोक्खमवि । (ख) जि०० पृ० १६२ बहुविधग्गहण नजद जहा समाये जीवतेण विणा पुण्णपावादिणा कम्म बिसेसेण गारदेवादि विसेसा भवंति । Jain Education International अरोगनेदभिण्णा अवि दो रासौ एते इति, प्राप्तिः तं बहुविहं । नारगादिसु गतिसु अणेगाणि तित्थगरादि (ग) हा० टी० प० १५९ पुण्यं च पापं च - बहुविधगतिनिबन्धनं [च] तथा 'बन्धं' जीवकर्मयोगदुःखलक्षणं 'मोक्षं च' तद्वियोगसुखलक्षणं जानाति । For Private & Personal Use Only --- www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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