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________________ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १६६ वास्तविक स्वरूप को भी जान लेता है और इस तरह मोहाभाव को प्राप्त हो सम्यक् विचार से इन सुखों के समूह को दुःख स्वरूप समझ उनसे विरक्त हो जाता है । अध्ययन ४ श्लोक १७-१८ टि० १५२-१५३ : मूल में 'निव्विदए' शब्द है । इसकी उत्पत्ति दो धातुओं से हो सकती है- निव्विद ( निर् + विन्द् ) = निश्चयपूर्वक जानना, भलीभाँति विचार करना । निर् + विघृणा करना, विरक्त होना, असारता का अनुभव करना । सूत्र में दिव्य और मानुषिक दो तरह के भोगों का ही नाम है। पूर्णिकार कहते हैं समावेश होता है । 'चकार' से तिर्यञ्चयोनिक भोगों का बोध होता है । 'मानुषिक' - मनुष्यों के वास्तव में भोग दो ही तरह के हैं दिव्य और मानुषिक शेष भोग वस्तुतः भोग नहीं होते । श्लोक १७: १५२. श्लोक १७: संयोग दो तरह के होते हैं बाह्य और आभ्यंतर । संयोग का अर्थ है-ग्रन्थि अथवा सम्बन्ध । स्वर्ण आदि का संयोग बाह्य संयोग है । क्रोध, मान, माया और लोभ का संयोग आभ्यन्तर संयोग है। पहला द्रव्य-संयोग है दूसरा भाव-संयोग । जब मनुष्य दिव्य और मानुषिक भोगों से निश्त होता है तब वह वाह्य और आभ्यन्तर पदार्थों व भावों की मूर्च्छा, ग्रंथि और संयोगों को भी छोड़ता है । श्लोक १८ : दिन में दैविक और संरकि मोगों का भोग का द्योतक है । हरिभद्र कहते हैं १५३. लोक १८: जो केश-लुञ्चन करता है और जो इन्द्रियों के विषय का अपनयन करता है, उन्हें जीत लेता है, उसे मुण्ड कहा जाता है । मुण्ड होने का पहला प्रकार शारीरिक है और दूसरा मानसिक । स्थानाङ्ग (१०.१९) में दस प्रकार के मुण्ड बतलाए हैं : १- क्रोध-मुण्ड क्रोध का २- मान-मुण्डमान का ३- माया मुण्ड माया का अपनयन करने वाला । अपनयन करने वाला । अपनयन करने वाला । ४ - लोभ- मुण्ड -- लोभ का अपनयन करने वाला । ५- शिर मुण्ड - शिर के केशों का लुञ्चन करने वाला । ६- श्रोत्रेन्द्रिय-मुण्ड - कर्णेन्द्रिय के विकार का अपनयन करने वाला । ७ - चक्षु इन्द्रिय-मुण्ड - चक्षु इन्द्रिय के विकार का अपनयन करने वाला । Jain Education International १ – (क) अ० चू० पृ० ४, ६५ : भुज्जंतीति भोगा ते णिविंदति णिच्छितं विदति-विजानाति, जहा एते बहुकिले से हि उप्पादिया विकिपगफलमा जे दिव्या दिवि भया दिष्या मसेतु भवा माणुसा ओरालियसारिस्त्रेण मासाभियातिरिया विभणिया भवंति | अहवा जो दिव्व- माणुसे परिजानाति तस्स तिरिए कि गहणं ? जे य माणुसा इति चकारेण वा भणितमिदं । (ख) जि० ० ० १६२ जतीति भोगा शिच्यं वदतीति निम्बिदति विधिह्मणेयव्यगारं वा विद निब्बिदद, जहा एते fitपागफल माणा दुरंता भोगत्ति, ते य निव्विदमाणो दिव्वा वा निव्विदइ माणुस्सवा, सीसो आह – कि तेरिच्छा भोगा न निदिइ ? आपरिओ आह- दिव्यगण बेबनेरइया गहिया, मागुत्सवणेण मागुता, चकारेण तिरिखजोगिया गहिया । (ग) हा० टी० प० १५१ निविन्ते मोहाभावात् सम्यविचारवत्यसारदुःखरूपतया 'भोगान्' शब्दादीन् यान् दिव्यान् यांच मानुषान् वास्तु वस्तुतो भोगा एव न भवन्ति । २ (क) अ० चू० पृ० ६५ : परिच्चयति 'सभितर बाहिरं' अभितरो कोहादि बाहिरो सुवण्णादि । (ख) जि० पू० पृ० १६२ बाहरं अनंत च तत्थ बाहिरं सुबन्नादी अनंतरं कोहमागमायालो भाई । . (ग) हा० टी० प० १५६ : 'संयोगं' संबन्धं द्रव्यतो भावतः 'साभ्यन्तरबाह्य" क्रोधादि हिरण्या दिसंबन्धमित्यर्थः । ३-२००० २५मुंडे' इन्दिय-विसय-केस वणवण मुंडो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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