SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दसवेआलियं (दशवैकालिक ) १७० अध्ययन ४ : श्लोक १९-२० टि० १५४-१५५ ८-घ्राण इन्द्रिय-मुण्ड-घ्राण इन्द्रिय के विकार का अपनयन करने वाला। ९-- रसन इन्द्रिय-मुण्ड-रसन इन्द्रिय के विकार का अपनयन करने वाला। . १०-स्पर्शन इन्द्रिय-मुण्ड-स्पर्शन इन्द्रिय के विकार का अपनयन करने वाला। जब मनुष्य भोगों से निवृत्त हो जाता है तथा बाह्याभ्यन्तर संयोगों का त्याग कर देता है तब उसके गृहवास में रहने की इच्छा भी नहीं रहती। वह द्रव्य और भाव-मुंड हो, घर छोड़, अनगारिता अर्थात् अनगार-वृत्ति को धारण करता है-प्रबजित हो जाता है। जिसके अगार—घर नहीं होता उसे अनगार कहा जाता है । अनगारिता अर्थात् गृह-रहित अवस्था---श्रमणत्व - साधुत्व । श्लोक १६: १५४. श्लोक १६: _ 'संवर' का अर्थ है --प्राणातिपात आदि आस्रवों का निरोध । यह दो तरह का है : देश संवर और सर्व संबर । देश संवर का अर्थ है-आस्रवों का एक देश त्याग-आंशिक त्याग । सर्व संबर का अर्थ है--आस्रवों का सर्व त्याग –सम्पूर्ण त्याग । देश संवर से सर्व संवर उत्कृष्ट होता है । जब सर्व भोग, बाह्याभ्यन्तर ग्रंथि और घर को छोड़कर मनुष्य द्रव्य और भाव रूप अनगारिता को ग्रहण करता है तब उसके उत्कृष्ट संवर होता है क्योंकि महाव्रतों को ग्रहण कर वह पापानवों को सम्पूर्णतः संवृत कर चुका होता है। जिसके सर्व संवर होता है उसके सम्पूर्ण चारित्र धर्म होता है । सम्पूर्ण चारित्र धर्म से बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं है । अतः सकल चारित्र का स्वामी अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है-उसका अच्छी तरह आसेवन करता है। अनगार के जो उत्कृष्ट संवर कहा है वह देश विरति के संवर की अपेक्षा से कहा है और उसके जो अनुत्तर धर्म कहा है वह पर-मतों की अपेक्षा से कहा है। श्लोक २० : १५५. श्लोक २०: जब अनगार उत्कृष्ट संवर और अनुत्तर धर्म का पालन करता है तब उसके फलस्वरूप अबोधि-अज्ञान या मिथ्यात्व रूपी कलुष से सञ्चित कर्म-रज को धुन डालता है-विध्वंस कर डालता है। १--(क) अ० चू० पृ० ६५ : मुंडो भवित्ताणपंचादि अणगारियं प्रव्रजति प्रपद्यते अगारं--घरं तं जस्स नत्थि सो अणगारो, तस्स भावो अणगारिता तं पवज्जति । (ख) जि० चू० १० १६२ : अणगारियं नाम अगारं-गिह भण्णइ तं जेसि नत्थि ते अणगारा, ते य साहुणो, ण उद्देसियादीणि भुजमाणा अन्नतिथिया अणणारा भवंति । (ग) हा० टी० ५० १५६ : मुण्डो भूत्वा द्रव्यतो भावतश्च 'प्रव्रजति' प्रकर्षण व्रजत्यपवर्ग प्रत्यनगारं, द्रव्यतो भावतश्चाविद्य मानागारमिति भावः । २-(क) अ० चू० पृ० ६५ : संवरं संवरो-पाणातिवातादीण आसवाण निवारणं, स एव संवरो उक्कट्ठो धम्मो तं फासे ति । सो य अणुत्तरो, ण तातो अण्णो उत्तरतरो। अथवा संवरेण उक्करिसियं धम्ममणुत्तरं 'पासे' त्ति उक्किट्ठाणंतरं विसेसो उक्किट्ठो, जं णं देसविरती अणुत्तरो कुतित्थियधम्मेहितो पहाणो। (ख) जि० चू० पृ० १६२-६३ : संवरो नाम पाणवहादीण आसवाणं निरोहो भण्णइ, देससंबराओ सव्वसंवरो उक्किट्ठो, तेण सव्वसंवरेण संपुण्णं चरित्तधम्म फासेइ, अणुतरं नाम न ताओ धम्माओ अण्णो उत्तरोत्तरो अस्थि, सीसो आह, -णणु जो उक्किट्ठो सो चेव अणुत्तरो ? आयरिओ भणइ -उक्किट्ठगहणं देसविरइपडिसेहणत्थं कयं, अणुत्तरगहणं एसेव एक्को जिणप्पणीओ धम्मो अणुत्तरो ण परवादिमताणित्ति। (ग) हा० टी० प० १५६ : 'संवरमुक्किट्ठ' ति प्राकृतशैल्या उत्कृष्टसंवरं धर्म-सर्वप्राणातिपातादिविनिवृत्तिरूपं, चारित्रधर्म ____मित्यर्थः, स्पृशत्यानुत्तरं-सम्यगासेवत इत्यर्थः । ३-(क) अ० चू० पृ०६५ : तदा धुणति कम्मरयं -धुणति विद्धसयति कम्ममेव रतो कम्मरतो । 'अबोहिकलुसं कडं --अबोहि-अण्णाणं, अबोहिकलुसेण कडं अबोहिणा वा कलुसं कतं । (ख) हा० टी० ५० १५६ : धुनोति--अनेकार्थत्वात्पातयति 'कर्मरजः' कमैव आत्मरञ्जनाद्रज इव रजः,... अबोधिकलुषकृतम्' अबोधिकलुषेण मिथ्यादृष्टिनोपात्तमित्यर्थः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal use only wwwjain www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy