SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छज्जीवणिया (षड्जीवनिका ) १७१ अध्ययन ४ : श्लोक २१-२४ टि० १५६-१५६ श्लोक २१: १५६. श्लोक २१: आत्मावरण कर्म-रज ही है । जब अनगार इसको धुन डालता है तब उसकी आत्मा अपने स्वाभाविक स्वरूप में प्रकट हो जाती है । उसके अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन प्रकट हो जाते हैं, जो सर्वत्रग होते हैं। सर्वत्रग का अर्थ है-सब स्थानों में जानेवाले–सर्व व्यापी । यहाँ यह ज्ञान और दर्शन का विशेषण है। इसलिए इसका अर्थ है केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन । नैयायिकों के मतानुसार आत्मा सर्व व्यापी है। जैन-दर्शन के अनुसार ज्ञान सर्व व्यापी है। यह सर्वव्यापकता क्षेत्र की दृष्टि से नहीं किन्तु विषय की दृष्टि से है । केवल-ज्ञान के द्वारा सब विषय जाने जा सकते हैं इसलिए यह सर्वत्रग कहलाता है। श्लोक २२: १५७. श्लोक २२: जिसमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल-ये छह द्रव्य होते हैं उसे 'लोक' कहते हैं । लोक के बाहर जहाँ केवल आकाश है अन्य द्रव्य नहीं, वह 'अलोक' कहलाता है । जो सर्वत्रग ज्ञान-दर्शन को प्राप्त कर जिनकेवली होता है वह समूचे लोकालोक को देखने-जानने लगता है । श्लोक २३: १५८. श्लोक २३: आत्मा स्वभाव से अप्रकम्प होती है। उसमें जो गति, स्पन्दन या कम्पन है वह आत्मा और शरीर के संयोग से उत्पन्न है। इसे योग कहा जाता है । योग अर्थात् मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति । इसका निरोध तद्भव-मोक्षगामी जीव के अन्तकाल में होता है । पहले मन का, फिर वचन का और उसके पश्चात् शरीर का योग निरुद्ध होता है और आत्मा सर्वथा अप्रकम्प बन जाती है । इस अवस्था का नाम है शैलेशी। शैलेश का अर्थ है मेरु । यह अवस्था मेरु की तरह अडोल होती है इसलिए इसका नाम शैलेशी है। जो लोकालोक को जानने-देखनेवाला जिन- केवली होता है वह अन्तकाल के समय योग का निरोध कर निष्कंप शैलेशी अवस्था को प्राप्त होता है। निश्चल अवस्था को प्राप्त होने से अब उसके पुण्य कर्मों का भी बन्ध नहीं होता। श्लोक २४: १५६. श्लोक २४: __ जिन-केबली के नाम, वेदनीय, गोत्र और आयुष्य ये चार कर्म ही अवशेष होते हैं। ये केवल भवधारण के लिए होते हैं । जब वह सब सम्पूर्ण अयोगी हो शैलेशी अवस्था को धारण करता है तब उसके ये कर्म भी सम्पूर्णतः क्षय को प्राप्त हो जाते हैं और वह नीरजकर्म रूपी रज से सम्पूर्ण रहित हो सिद्धि को प्राप्त करता है । सिद्धि लोकान्त क्षेत्र को कहते हैं। १- (क) अ० चू० पृ० ६५ : सव्वत्थ गच्छती सव्वत्तगं केवलनाणं केवलदसणं च । (ख) जि० चू० १० १६३: (ग) हा० टी० ५० १५६ : 'सर्वत्रगं ज्ञानम् -अशेषज्ञेयविषयं 'दर्शनं च' अशेषदृश्यविषयम् । २-हा० टी०प० १५६ : 'लोक' चतुर्दशरज्ज्वात्मकम् 'अलोकं च' अनन्तं जिनो जानाति केवली, लोकालोको च सर्व नान्यतर मेवेत्यर्थः । ३-(क) अ० चू०प०६६ : 'तदा जोगे निरु'भित्ता' भवधारणिज्जकम्मविसारणत्थं सीलस्स ईसति-वसति सेलेसि । (ख) जि० चू० १० १६३ : तदा जोगे निरु भिऊण सेलेसि पडिवज्जइ, भवधारणिज्जकम्मक्खयट्ठाए। (ग) हा० टी०प०१५६ : उचितसमयेन योगाग्निरूद्धच मनोयोगादीन शैलेशी प्रतिपद्यते, भवोपनाहिकशिक्षयाय । ४... (क) अ० चू०पू०६६ : ततो सेलेसिप्पभावेण तदा कम्म' भवधारणिज्ज कम्म सेसं खवित्ताणं सिद्धि गच्छति णीरतो निक्कम्ममलो। (ख) जि० चू० १० १६३ : भवधारणिज्जाणि कम्माणि खवेउं सिद्धि गच्छद, कहं ? जेण सो नीरओ, नीरओनाम अवगत रओ नीरओ। (ग) हा० टी०प०१५९ : कर्म क्षपयित्वा भवोपग्राह्यपि सिद्धि गच्छति', लोकान्तक्षेत्ररूपां 'नीरजाः सकलकर्मरजोविनिर्मुक्तः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy