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दसवेआलियं ( दशवैकालिक )
१७२ अध्ययन ४ : श्लोक २५-२६ टि० १६०-१६२
श्लोक २५ : १६०. श्लोक २५ :
मुक्त होने के पश्चात् आत्मा लोक के मस्तक पर-ऊर्ध्व लोक के छोर पर जाकर प्रति ष्ठत होती है इसलिए उसे लोकमस्तकस्थ कहा गया है । भगवान् से पूछा गया-मुवत जीव कहाँ प्रतिहत होते हैं ? कहाँ प्रतिष्ठित होते हैं ? कहाँ शरीर को छोड़ते हैं ? कहाँ जाकर सिद्ध होते हैं ? उत्तर मिला-वे अलोक में प्रतिहत हैं, लोकान में प्रतिष्ठित हैं, यहाँ मनुष्य-लोक में शरीर छोड़ते हैं, और वहाँलोकान में जाकर सिद्ध होते हैं
कहिं पडिहया सिद्धा ? कहि सिद्धा पइडिया ? कहिं बोन्दि चइत्ताणं ? कत्थ गन्तूण सिज्मई ? अलोए पडिहया सिद्धा, लोयागे य पइट्ठिया। इहं बोन्दि चइत्ताणं, तत्थ गन्तूण सिज्झई ।।
उतराध्ययन ३६.५५,५६ लोक के मस्तक पर पहुँचने के बाद वह सिद्ध आत्मा पुन: जन्म धारण नहीं करती और न लोक में कभी आती है। अतः शाश्वत सिद्ध रूप में वहीं रहती है।
श्लोक २६:
१६१. सुख का रसिक ( सुहसायगस्स क ) :
सुख-स्वादक के अर्थ इस प्रकार किये गये हैं : (१) अगस्त्य सिंह के अनुसार जो सुख को चखता है वह सुखस्वादक है । (२) जिनदास के अनुसार जो सुख की प्रार्थना--कामना करता है वह सुखस्वादक कहलाता है ।
(३) हरिभद्र के अनुसार जो प्राप्त सुख को भोगने में आसक्त होता है उसे सुखस्वादक-सुख का रसिक कहा जाता है। १६२. सात के लिए आकुल ( सायाउलगस्स ख ):
साताकुल के अर्थ इस प्रकार मिलते हैं : (१) अगस्त्यसिंह के अनुसार सुख के लिए आकुल को साताकुल कहते हैं । (२) जिनदास के अनुसार 'मैं कब सुखी होऊँगा'---ऐसी भावना रखनेवाले को साताकुल कहते हैं। (३) हरिभद्र के अनुसार जो भावी सुख के लिए व्याक्षिप्त हो उसे साताकुल कहते हैं ।
अगस्त्य चूणि में 'सुहासायगस्स' के स्थान में 'सुहसीलगस्स' पाठ उपलब्ध है। सुखशीलक, सुख-स्वादक और साताकुल में आचार्यों ने निम्नलिखित अन्तर बतलाया है :
गा
१- (क) अ० चू० पृ० ९६ : लोगमत्थगे लोगसिरसि ठितो सिद्धो कतत्थो [सासतो] सव्वकालं तहा भवति । (ख) जि० चू० पृ० १९३ : सिद्धो भवति सासयोत्ति, जाव य ण परिणेब्वाति ताव अकुच्छियं देवलोगफलं सुकुलुप्पत्ति च
पावतित्ति। (ग) हा० टी० ५० १५६ : लोक्योपरिवर्ती सिद्धो भवति 'शाश्वतः' कर्मबीजाभावादनुत्पत्तिधर्म इति भावः । २ --अ० चू० पृ० ६६ : 'सुहसातगस्स' तदा सुखं स्वादयति चक्खति । ३–जि० चू० पृ० १६३ : सुहं सायतीति सुहसाययो, सायति णाम पत्थयतित्ति, जो समणो होऊण सुहं कामयति सो सुहसायतो
भण्णइ। ४-हा० टी० ५० १६० : सुखास्वादकस्य-अभिष्वङ्गण प्राप्तसुखभोक्तुः । ५- अ० चू० पृ० ६६ : साताकुलगस्स-तेणेव सुहेण आउलस्स, आउलो --- अणेक्कग्गो। ६-जि० चू० पृ० १६३ : सायाउलो नाम तेण सातेण आकुलीकओ, कहं सहीहोज्जामित्ति ? सायाउलो। ७ हा० टी० ५० १६० : 'साताकुलस्य' भाविसुखार्थ व्याक्षिप्तस्य ।
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