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छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका )
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(१) अगस्त्य मुनि के अनुसार जो कभी-कभी सुख का अनुशीलन करता है उसे सुखशीलक कहा जाता है और जिसे सुख का सतत ध्यान रहता है उसे साताकुल कहा जाता है' |
(२) जिनदास के अनुसार अप्राप्त सुख की जो प्रार्थना-कामना है वह सुख-स्वादकता है। प्राप्त-सात में जो प्रतिबंध होता है यह कुता है।
(३) हरिभद्र के अनुसार सुखास्वादकता का सम्बन्ध प्राप्त सुख के साथ है और साताकुल का सम्बन्ध अप्राप्त-भावी सुख के
साथ ।
आचायों में इन शब्दों के अर्थ के विषय में जो मतभेद है, वह स्पष्ट है।
अगस्त्य मुनि के अनुसार सुख और सात एकार्थक हैं। जिनदास के अनुसार सुख का अर्थ है-अप्राप्त भोग और सात का अर्थ हैप्राप्त भोग। हरिभद्र का अर्थ ठीक इसके विपरीत है प्राप्त सुख सुख है और अप्राप्त सुख सात ।
१६३. अकाल में सोने वाला ( निगामसाइस्स ख ) :
जिनदास ने निकामी को प्रकामशायी' का पर्यायवाची माना है। हरिभद्र के अनुसार सूत्र में जो सोने की बेला बताई गई है उसे उलंघन करनेवाला निकामशायी है। भावार्थ है-अतिशय सोनेवाला अत्यन्त निद्राशी अगरस्यसिंह के अनुसार कोमल बिस्तर बिछाकर सोने की इच्छा रखने वाला निकामशायी है ।
१६४. हाथ, पैर आदि को बार-बार धोने वाला ( उच्च्ड्रोलणापहोइस्स ग ) :
घोड़े जल से हाथ पैर आदि को धोने वाला 'उत्सोलनाप्रभावी' नहीं होता जो प्रभूत जल से बार-बार आदि को घोता है वह 'उत्सनाभावी' कहलाता है जिनदास ने विकल्प से प्रभूत जल से भाजनादि का धोना
श्लोक २७ :
अध्ययन ४ श्लोक २७ टि० १६३-१६५
:
ख
१६५. ऋजुमतो ( उज्जुमइ ) :
जिसकी मति ऋजु - सरल हो उसे ऋजुमती कहते हैं अथवा जिसकी बुद्धि मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त हो वह ऋजुमती कहलाता है।
१०० १० १६ जदा सुहसीलगरस तदा सातालए विसेसो एगो सुहं कयाति अणुसीले ति साताकुलो पुर्ण सदा तदभि ज्भाणो ।
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२- जि०
० चू० पृ० १६३ : सीसो आह- सुहसायगसायाउलाण को पतिविसेसो ? आयरिओ आह- सुहसायगहणेण अप्पत्तस्स
सुहस्स जा पत्थणा सा गहिया, सायाउ लग्गहण पत्ते य साते जो पडिबंधो तस्स गहणं कयं ।
३ - हा० टी० प० १६० : सुखास्वादकस्य - अभिष्वङ्ग ेण प्राप्तसुखभोक्तुः ४–जि० ० चू० पृ० १६४ : निगामं नाम पगामं भण्णइ, निगामं सुयतीति निगामसायी । ५- हा० टी० प० १६० : निकामशायिनः' सूत्रार्थवेलामप्युल्लङ्घ्य शयानस्य ।
६ - अ० ० पू० १६ : निकामसाइस्स सुपच्छष्णे मउए सुइतुं सीलमस्स निकामसाती ।
७ – (क) अ० चू० पृ० ६६ : उच्छोलणापहोती पभूतेण अजयणाए धोवति ।
(ख) जि०० पृ० १६४ उन्हापहावी जाम जो पभूओरगेण नृत्यपावादी अभिवणं पक्लालपर, धोवेण कुस्कुवियसं यमाणो (ण) उच्छोलणापहोबी लभ या भायणाणि वभूतेण पाणिएण पत्रालयमाणो उच्छोलणापहोव
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(क) अ० चू० पृ० ६७ उज्जुया मती उज्जुमती- अमाती । (a) fas ० चू० पृ० १६४ अज्जवा मती जस्स सो उज्जुमती । (ग) हा० टी० प० १६० : 'ऋजुमतेः' मार्गप्रवृत्तबुद्ध ेः ।
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हाथ, पैर भी किया है।
(ग) हा० टी० प० १६० : 'उत्सोलनाप्रधाविनः' उत्सोलनया- उदकायतनया प्रकर्षेण धावति - पादादिशुद्ध करोति यः स
तथा तस्य ।
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"साताकुलस्य' भाविसुखार्थ व्याक्षिप्तस्य ।
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