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देसवेआलियं ( दशवकालिक )
१७४ अध्ययन ४ : श्लोक २८ टि० १६६-१७० १६६. परीषहों को ( परीसहे ग ) :
क्षुधा, प्यास आदि बाईस प्रकार के कष्टों को' । इसकी व्याख्या के लिए देखिए अ०३ : टिप्पणी नं० ५७ पृ० १०३ । १६७.
कई ग्रादर्शों में २७ वें श्लोक के पश्चात् यह श्लोक है । दोनों चूणियों और टीका में इसकी व्याख्या नहीं है । इसलिए यह बाद में प्रक्षिप्त हुआ जान पड़ता है ।
श्लोक २८: . १६८. सम्यग्-दृष्टि ( सम्मदिट्ठी ख ):
जिसे जीव आदि तत्त्वों में श्रद्धा है वह । १६६. कर्मणा (कम्मुणा घ) :
हरिभद्र सूरि के अनुसार इसका अर्थ है—मन, बचन और काया की क्रिया। ऐसा काम जिससे षट्-जीवनिकाय जीवों की किसी प्रकार की हिसा हो। १७०. विराधना ( विराहेज्जासि घ ) :
विराधना का अर्थ है-दु:ख पहुँचाने से लेकर प्राण-हरण तक की क्रिया । अप्रमत्त साधु के द्वारा भी जीवों की कथञ्चित् द्रव्य विराधना हो जाती है, पर यह अविराधना ही है।
१--(क) अ० चू० पृ० ६७ : परीसहे बावीसं जिणंतस्स ।
(ख) जि० चू० पृ० १६४ : परीसहा--दिगिच्छादि बावीसं ते अहियासंतस्स ।
(ग) हा० टी० ५० १६० : 'परीषहान्' क्षुत्पिपासादीन् । २-हा० टी० ५० १६० : 'सम्यग्दृष्टिः' जीवस्तत्त्वश्रद्धावान् । ३–(क) अ० चू० पृ० ६७ : कम्मुणा छज्जीवणियजीवोवरोहकारकेण ।
(ख) जि० चू० पृ० १६४ : कम्मुणा णाम जहोवएसो भण्णइ तं छज्जीवणियं जहोवदिट्ठ तेण णो विराहेज्जा ।
(ग) हा० टी० ५० १६० : 'कर्मणा'--मनोवाक्कायक्रियया । ४– (क) अ० चू० पृ० ६७ : ण विराहेज्जासि मज्झिमपुरिसेण वपदेसो एवं सोम्म ! ण विगणीया छक्कातो। (ख) हा० टी० ५० १६० : 'न विराधयेत्' न खण्डयेत्, अप्रमत्तस्य तु द्रव्यविराधना यद्यपि कथञ्चिद् भवति तथाऽप्यादविरा
धनैवेत्यर्थः।
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