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________________ दसवेआलियं ( दशवकालिक ) अध्ययन ४ : श्लोक ११ टि० १४५ के तीसरे' और दसवें अध्ययन में प्रतिपादित हुआ है। श्रमण की पर्युपासना के दस फल बतलाए हैं। उनमें पहला फल धवण है। इसके बाद ही ज्ञान, विज्ञान आदि का क्रम है। स्वाध्याय के पाँच प्रकारों में भी श्रुति का स्थान है। स्वाध्याय का पहला प्रकार वाचना है । आजकल हम बहुत कुछ आँखों से देखकर जानते हैं । इसके अर्थ में वाचन और पठन शब्द का प्रयोग भी होता है। यही कारण है कि हमारा मानस वाचन का वही अर्थ ग्रहण करता है जो आँखों से देखकर जानने का है। पर वाचन व पठन का मूल बोलने में है । इनकी उत्पत्ति 'वचंक भाषणे' और 'पठ् वक्तायां वाचि' धातु से है । इसलिए वाचन और पठन से श्रवण का गहरा सम्बन्ध है। अध्ययन के क्षेत्र में आज जैसे आँखों का प्रभूत्व है वैसे ही आगम-काल में कानों का प्रभुत्व रहा है। 'सुनकर'- इस शब्द की जिनदास ने इस प्रकार व्याख्या की है---सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ—इन तीनों को सुनकर अथवा ज्ञान, दर्शन और चारित्र को सुनकर अथवा जीव-अजीव आदि पदार्थों को सुनकर । हरिभद्र ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है-मोक्ष के साधन, तत्त्वों के स्वरूप और कर्म-विपाक के विषय में सुनकर । १४५. कल्याण को ( कल्लाणं क): जिनदास के अनुसार 'कल्ल' शब्द का अर्थ है 'नीरोगता', जो मोक्ष है । जो नीरोगता प्राप्त कराए वह है कल्याण अर्थात् ज्ञानदर्शन-चारित्र। हरिभद्र सुरि ने इसका अर्थ किया है--कल्य अर्थात् मोक्ष--उसे जो प्राप्त कराए वह कल्याण अर्थात् दया-संयम । अगस्त्य चुणि के अनुसार इसका अर्थ है-आरोग्य । जो आरोग्य को प्राप्त कराए वह है कल्याण, अर्थात् संसार से मोक्ष । संसार-मुक्ति का हेतु धर्म है, इसलिए उसे कल्याण कहा गया है। १-उत्त० ३.८-१०: माणुस्सं विग्गह ल , सुई धम्मस्स दुल्लहा । जं सोच्चा पडिवज्जंति, तवं खंतिहिसयं ।। आहच्च सवणं लक्षु, सद्धा परमदुल्लहा । सोच्चा नेआउयं मग्गं, बहवे परिभस्सई ॥ सुई च लधु सद्ध च, वीरियं पुण दुल्लह । बहवे रोयमाणा वि, नो एणं पडिवज्जए ।। २-उत्त० १०.१८-२०: अहीणपंचेन्दियत्तं पि से लहे, उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा । कुतिस्थिनिसेवए जणे, समयं गोयम ! मा पमायए । लक्षूण वि उत्तमं सुई, सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा । मिच्छत्त निसेवए जणे, समयं गोयम ! मा पमायए। धम्म पि हु सद्दहन्तया, दुल्लया काएण फासया । इह कामगुणेहि मुच्छिया, समयं गोयम ! मा पमायए । ३--ठा० ३.४१८ : सवणे णाणे य विन्नाणे पच्चक्खाणे य संजमे। अणण्हते तवे चेव वोदाणे अकिरिय निव्वाणे ।। ४.. जि० चू० पृ० १६१ : सोच्चा नाम सुत्तत्थतदुभयाणि सोऊण णाणदंसणचरित्ताणि वा सोऊण जीवाजीवादी पयत्था वा सोऊण । ५ ... हा० टी० ५० १५८ : "श्रुत्वा' आकर्ण्य संसाधनस्वरूपविपाकम् । ६- जि० चू० पृ० १६१ : कल्लं नाम नीरोगया, सा य मोक्खो, तमणेइ जं तं कल्लाणं, ताणि य णाणाईणि। ७-हा० टी०प० १५८ : कल्यो- मोक्षस्तमणति-प्रापयतीति कल्याण-दयाख्यं संयमस्वरूपम् । ८--अ० चू० पृ० ६३ : कल्लाणं कल्लं--आरोग्ग तं आणेइ कल्लाणं संसारातो विमोक्खणं, सो य धम्मो । dain Education Intermational Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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