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________________ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १६५ अध्ययन ४ : श्लोक ११ टि०१४३-१४४ कि उसे अमुक कार्य नहीं करना है क्योंकि उससे अमुक जीव की घात होती है। अतः जीवों का ज्ञान प्राप्त करना अहिंसावादी की पहली शर्त है । बिना इस शर्त को पूरा किये कोई सम्पूर्ण अहिंसक नहीं हो सकता। जिसके साध्य, उपाय और फल का ज्ञान नहीं, वह क्या करेगा? वह तो अन्धे के तुल्य है। उसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति के निमित्त का अभाव होता है। १४३. वह क्या जानेगा-क्या श्रेय है और क्या पाप (कि वां नाहिइ छेय पावगं घ): श्रेय हित को कहते हैं, पाप अहित को। संयम श्रेय है-हितकर है। असंयम-पाप है-अहितकर है। जो अज्ञानी है, जिसे जीवाजीव का ज्ञान नही, उसे किसके प्रति संयम करना है, यह भी कैसे ज्ञात होगा? इस प्रकार संयम के स्थान को नहीं जानता हुआ वह श्रेय और पाप को भी नहीं समझेगा। जिस प्रकार महानगर में दाह लगने पर नयनविहीन अन्धा नहीं जानता कि उसे किस दिशा-भाग से भाग निकलना है, उसी तरह जीवों के विशेष ज्ञान के अभाव में अज्ञानी नहीं जानता कि उसे असं यमरूपी दावानल से कैसे बच निकलना है ? जो यह नहीं जानता कि यह हितकर है --कालोचित है तथा यह उससे विपरीत है, उसका कुछ करना नहीं करने के बराबर है। जैसे कि आग लगने पर अन्धे का दौड़ना और घुन का अक्षर लिखना। श्लोक ११: १४४. सुनकर (सोच्चा ): आगम रचना-काल से लेकर वीर निर्वाण के दसवें शतक से पहले तक जैनागम प्रायः कण्ठस्थ थे। उनका अध्ययन आचार्य के मुख से सुनकर होता था। इसीलिए श्रवण या श्रुति को ज्ञान-प्राप्ति का पहला अंग माना गया है । उत्तराध्ययन (३.१) में चार परमाङ्गों को दुर्लभ कहा है। उनमें दूसरा परमाङ्ग श्रुति है । श्रद्धा और आचरण का स्थान उसके बाद का है। यही क्रम उत्तराध्ययन १- (क) अ० चू० पृ० ६३ : अण्णाणी जीवो जीवविण्णाणविरहितो सो कि काहिति ? कि सद्दो खेववाती, कि विण्णाणं विणा करिस्सति ? (ख) जि० चू० पृ० १६१ : जो पुण अण्णाणी सो कि काहिई ? (ग) हा० टी० ५० १५७ : यः पुन: 'अज्ञानी' साध्योपायफलपरिज्ञानविकलः स किं करिष्यति ? सर्वत्रान्धतुल्यत्वात्प्रवृत्ति निवृत्तिनिमित्ताभावात् । २-(क) अ० चू० पृ.० ६३ : किं वा णाहिति, वा सद्दो समुच्चये, 'णाहिति' जाणिहिति 'छेदं' जे सुगतिगमणलक्खातो चिटुति, पावकं तविवरीतं । निदरिसणं जहा अंधो महानगरदाहे पलित्तमेव विसमं वा पविसति, एवं छेद पावगमजाणतो संसारमेवाणुपडति। (ख) जि. चू० पृ० १६१ : तत्थ छेयं नाम हितं, पावं अहियं, ते य संजमो असंजमो य, दिढतो अंधलओ, महानगरदाहे नयणविउत्तो ण याणाति केण दिसाभाएण मए गंतव्वंति, तहा सोवि अन्नाणी नाणस्स विसेसं अयाणमाणो कहं असंजम दवाउ णिग्गच्छिहि ति? ३-हा० टी० प० १५७ : 'छेक' निपुणं हितं कालोचितं 'पापकं वा' अतो विपरीतमिति, ततश्च तत्करणं भावतोऽकरणमेव, समन निमित्ताभावात्, अन्धप्रदीप्तपलायनघुणाक्षरकरणवत् । ४-अ० चू० पृ० ६३ : गणहरा तित्थगरातो, सेसो गुरुपरंपरेण सुणेऊणं । ५-उत्त० ३.१ : चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जन्तुणो । माणुसतं सुई सद्धा संजमंमि य वोरियं । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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