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________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) १६४ प्रस्तुत श्लोक हिंसा न करते हुए सम्पूर्ण विरत महात्यागी को उसके निमित्त से हुई अशक्यकोटि की जीव हिंसा के पाप से ही मुक्त घोषित करता है। जो जीव-हिंसा में रत है, वह भले ही आवश्यकतावश या परवशता से उसमें लगा हो, हिंसा के पाप से मुक्त नहीं रह सकता । अनासक्ति केवल इतना ही अन्तर ला सकती है कि उसके पाप कर्मों का बंध अधिक गाढ़ नहीं होता । इलोक १०: १३६. श्लोक १० : इसकी तुलना गीता के (४०३८) का बंधन नहीं होता ऐसा कहा गया है। इससे पूर्वक होना चाहिए। इस तरह यहाँ ज्ञान की प्रधानता है। अध्ययन में दोनों की सहचारिता पर बल है । १४०. पहले ज्ञान, फिर दया ( पढमं नाणं तओ दया * ) : क अध्ययन ४ : इलोक १० नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते' के साथ होती है कि में' के पाप कर्म चारित्र की प्रधानता सामने आती है। इस श्लोक में यह कहा गया है कि चारित्र ज्ञानजैन धर्म ज्ञान और क्रिया — दोनों के युगपदुभाव से मोक्ष मानता है । इस पहले जीवों का ज्ञान होना चाहिए। दया उसके बाद आती है' । जीवों का ज्ञान जितना स्वल्प या परिमित होता है, मनुष्य में दया (अहिंसा) की भावना भी उतनी हो संकुचित होती है अतः पहले जीवों का यापक ज्ञान होना चाहिए जिससे कि सब प्रकार के जीवों के प्रति दया भाव का उद्भव और विकास हो सके और वह सर्वग्राही व्यापक जीवन - सिद्धान्त बन सके। इस अध्ययन में पहले पजीवनिकाय को बताकर बाद में हिंसा की चर्चा की है, वह इसी दृष्टि से है जीवों के व्यापक ज्ञान के विना व्यापक अहिंसा धर्म उत्पन्न नहीं हो सकता । ज्ञान से जीव-स्वरूप, संरक्षणोपाय और फल का बोध होता है । अत: उसका स्थान प्रथम है । दया संयम है । टि० १३६-१४२ सव्वसंजए ल ) : १४१- इस प्रकार सब मुनि स्थित होते हैं ( एवं चि जो संयति हैं- सत्रह प्रकार के संयम को धारण किए हुए हैं, उनको सब जीवों का ज्ञान भी होता है। जिनका जीव-ज्ञान अपरिशेष नहीं उनका संयम भी सम्पूर्ण नहीं हो सकता और बिना सम्पूर्ण संयम के अहिंसा सम्पूर्ण नहीं होती क्योंकि सर्वभूतों के प्रति संयम ही अहिंसा है। यही कारण है कि जीवाजीव के भेद को जानने वाले निर्ग्रन्थ श्रमणों की दया जहाँ सम्पूर्ण है वहाँ जीवाजीव का विशेष भेद-ज्ञान न रखने वाले वादों की दया वैसी विशाल व सर्वग्राही नहीं। वहीं दया कहीं तो मनुष्यों तक रुक गयी है और कहीं थोड़ी आगे जाकर पशु-पक्षियों तक या कीट-पतंगों तक इसका कारण पृथ्वीकायिक आदि स्थावर जीवों के ज्ञान का ही अभाव है । संयति ज्ञानपूर्वक क्रिया करने की प्रतिपत्ति में स्थित होते हैं, ज्ञानपूर्वक क्रिया (दया) का पालन करते हैं । १४२. अज्ञानी क्या करेगा ? ( अन्नाणी कि काही ग ) : जिसे मालूम ही नहीं कि यह जीव है अथवा अजीव, वह अहिंसा की बात सोचेगा ही कैसे ? उसे भान ही कैसे होगा Jain Education International १ – (क) अ० चू० पृ० ९३ : पढमं जीवाऽजीवाहिगमो, ततो जीवेसु दता । (ख) जि० चू० पृ० १६० : पढमं ताव जीवाभिगमो भणितो, तओ पच्छा जीवेसु दया । २ हा० टी० प० १५७ प्रथमम् आदौ ज्ञानं - जीवस्वरूपसंरक्षणोपायफलविषयं 'ततः' तथाविधज्ञानसमनन्तरं 'दया' संयमस्तवेकान्तोपादेयतया भावतस्तत्प्रवृतेः । ३ (क) ४० पू० पृ० १३ एवं चिट्ठति एवं सही प्रकाराभिघाती एतेण जीवादिविष्णामप्यगारेण विद्वति अवट्ठा करेति । ... सम्यगते सम्सद्दी अपरिसवादी सम्यसंजता पाणपुण्यं परिधम्मं परिवति । (ख) जि० ० ० १६०-६१ एवं सोऽवधारणे किमवधारयति ? सापूर्ण वेब संपुष्णा दया जीवाजीवविज्ञानमागणं, उसक्कादीनं जीवाजीवविसेसं अजाणमाणाणं संपूण्णा दया भवइत्ति, चिट्ठइ नाम अच्छइ सव्वसहो अपरिसेसवादी सय्यजता अपरिसाणं जीवाजीवादिसु जातेषु सतरसविध संगमो भव । (ग) हा० टी० प० १५७ 'एवम्' अनेन प्रकारेण ज्ञानपूर्वक क्रियाप्रतिपत्तिरूपेण 'तिष्ठति' आस्ते 'सर्वसंयतः ' सर्वः प्रव्रजितः । ני For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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