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छज्जीवणिया (षड्जीवनिका )
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अध्ययन ४ : श्लोक : टि० १३८ जो ऐसी सहज सम्यक-दृष्टि के साथ-साथ हिंसा, झूठ, अदत्त, मैथुन और परिग्रह आदि आस्रवों को प्रत्याख्यान द्वारा रोक देता है अर्थात् जो महाव्रतों को ग्रहण कर नए पाप-संचार को नहीं होने देता वह 'पिहितासव' कहलाता है।
जिसने श्रोत्र आदि पाँचों इन्द्रियों के विषय में राग-द्वेष को जीत लिया है, जो क्रोध, मान, माया और लोभ का निग्रह करता है अथवा उदय में आ चुकने पर उन्हें विफल करता है, इसी तरह जो अकुशल मन, वचन और काया का निरोध करता है और कुशल मन आदि का उदीरण करता है वह 'दान्त' कहलाता है।
___ इस श्लोक में कहा गया है कि जो श्रमण 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना से सम्पन्न होता है, संत होता है, दमितेन्द्रिय होता है उसके पाप कर्मों का बन्धन नहीं होता।
जिसकी आत्मा 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना से ओत-प्रोत है तथा जो उपयुक्त सम्यक् -दृष्टि आदि गुणों से युक्त है वह प्राणातिपात करता ही नहीं। उसके हृदय में सहज अहिंसा-वृत्ति होती है अतः वह कभी किसी प्राणी को पीड़ा उत्पन्न नहीं करता। इसलिए वह पाप से अलिप्त रहता है ।
कदाचित् जीव-वध हो भी जाय तो भी वह पाप से लिप्त नहीं होता। क्योंकि सर्व प्राणातिपात से मुक्त रहने के लिए वह सर्व प्राणातिपात-विरमण महावत ग्रहण करता है। उसकी रक्षा के लिए अन्य महावत ग्रहण करता है, इन्द्रियों का निग्रह करता है, कषायों को जीतता है तथा मन, वचन और काया का संयम करता है । अहिंसा के सम्पूर्ण पालन के लिए आवश्यक सम्पूर्ण नियमों का जो इस तरह पालन करता है, उससे कदाचित् जीव-वध हो भी जाय तो वह उसका कामी नहीं कहा जा सकता। अतः वह हिंसा के पाप से लिप्त नहीं होता।
जलमज्झे जहा नावा, सबओ निपरिस्सवा । गच्छंति चिट्ठमाणा वा, न जलं परिगिण्हा ॥ एवं जीवाउले लोगे, साह संवरियासवो ।
गच्छंतो चिठमाणो वा, पावं नो परिगेण्हइ ॥ जिस प्रकार छेद-रहित नौका में, भले ही वह जलराशि में चल रही हो या ठहरी हुई हो, जल प्रवेश नहीं पाता उसी प्रकार आसव-रहित संवृतात्मा श्रमण में, भले ही वह जीवों से परिपुर्ण लोक में चल रहा हो या ठहरा हुआ हो, पाप प्रवेश नहीं पाता। जिस प्रकार छेद-रहित नौका जल पर रहते हुए भी डूबती नहीं और यतना से चलाने पर पार पहुँचती है, वैसे ही इस जीवाकुल लोक में यतनापूर्वक गमनादि करता हुआ संवृतात्मा भिक्षु कर्म-बंधन नहीं करता और संसार-समुद्र को पार करता है।
गीता के उपर्युक्त श्लोक का इसके साथ अद्भुत शब्द-साम्य होने पर भी दोनों की भावना में महान् अन्तर है। गीता का इलोक अनासक्ति की भावना देकर इसके आधार से महान् संग्राम करते हुए व्यक्ति को भी उसके पाप से अलिप्त कह देता है जबकि
१-(क) अ० चू० पृ० ६३ : पिहितासवस्स-ठइताणि पाणवहादीणि आसबदाराणि जस्त तस्त पिहितासवस्स ।
(ख) जि० चू० पृ० १६० : पिहियाण पाणिवधादीणि आसवदाराणि जस्स सो पिहियासवदुवारो तस्स पिहियासवदुवारस्स ।
(ग) हा० टी०प० १२७ : पिहिताश्रवस्य' स्थगितप्राणातिपाताद्याश्रवस्य । २-(क) अ० चू० पृ० ६३ : दंतस्स -दतो इंदिरहि णोइंदिए हि य । इंदियदमोस्रोइंदियपयारणिरोधो वा सद्दातिरागद्दोसःणग्गहो वा,
एवं सेसेसु वि । णोइदियदमो कोहोदयणि रोहो वा उदयप्पत्तस्त विकलीकरणं वा, एवं जाव लोभो। तहा अकुसलमणणिरोहो वा कुसलमणउदीरणं वा, एवं वाया कातोय। तस्स इंदिय-णोइंदियदंतस्स पावं कम्मं ण बज्नति, पुज्वबद्ध च तवसा
खीयति । (ख) जि० दू० पृ० १६० : दंतो दुविहो - इंथिएहि नोइंदिए हि य, तत्थ इंदियदंतो सोइंदियपयारनिरोहो सोइ दियविसयपत्तेसु
य सहेसु रागदोस विनिग्गहो, एवं जाव फासिदिय विसयपत्तेसु य फालेस रागदोस बनिग्गहो, नोइ दियदंतो नाम कोहोदयनिरोहो उदयपत्तस्स य कोहस्स विकलीकरणं एवं जाव लोभोत्ति, एवं अकुसलमणनिरोहो कुसलमणउदीरणं च, एवं वयीवि
काएवि भाणियव्वं एवंविहस्त इवियनोइ दियदंतस्स पावं कम्मं न बंधइ, युव्यबद्धच बारसविहेण तवेण सो झिज्झइ । ३-जि० चू० पृ० १५६ : जहा जलमज्झे गच्छमाणा अपरिस्सबा नाना जलकतार बीईक्यई, न य विणासं पावइ, एवं साहू वि जीवाउले
लोगे गमणादोणि कुब्वमाणो संवरियासवदुवारत्तणेण संसारजलकतार बीयीवयइ, संवरियासवदुवारस्स न कुओवि भयमत्थि ।
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