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________________ दसवेलियं ( दशवेकालिक ) : १३५. यतनापूर्वक सोने ( जयं सएव ) यतनापूर्वक सोने का अर्थ है- पार्श्व आदि फेरते समय या अङ्गों को फैलाते समय निद्रा छोड़कर शय्या का प्रतिलेखन और प्रमार्जन करना । रात्रि में प्रकामशायी प्रगाढ़ निद्रावाला न होना, समाहित होना' । १३६. यतनापूर्वक खाने ( जयं भुजतो ग ) : नाक खाने का १६२ अध्ययन ४ श्लोक टि० १३५-१३८ : ह हैास्त्रविहितप्रयोजन के लिए निर्दोष प्रणीत रमरहित) पान-भोजन को अगृद्ध भाव से खाना । ग १३७. यतनापूर्वक बोलने ( जयं भासतो ): यतनापूर्वक बोलने का अर्थ है इसी सूत्र के 'वाक्य शुद्धि' नामक सातवें अध्याय में वर्णित भापा सम्बन्धी नियमों का पालन करना। मुनि के योग्य मृदु, समयोचित भाषा का प्रयोग करना है । श्लोक ६ : १३८. जो सब जीवों को आत्मवत् मानता है उसके बंधन नहीं होता ( श्लोक ) : जब शिष्य के सामने यह उत्तर आया कि यतना से चलने, खड़ा होने आदि से पाप कर्म का बंध नहीं होता तो उसके मन में एक जिज्ञासा हुई यह लोक छह काय के जीवों से समाकुल है । यतापूर्वक चलने, खड़ा होने, बैठने, सोने, भोजन करने और बोलने पर भी जीव-वध संभव है फिर यतनापूर्वक चलने वाले अनगार को पाप कर्म क्यों नहीं होगा ? शिष्य की इस शंका को अपने ज्ञान से समझ कर गुरु जो उत्तर देते हैं वह इस श्लोक में समाहित है । इसकी तुलना गीता के (५२६७) निम्न श्लोक से होती है : योगयुक्तो विशुद्वारमा विदितात्मा जितेन्द्रियः । सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥ इस नौवें श्लोक का भावार्थ यह है : जिसके मन में यह बात अच्छी तरह जम चुकी है कि जैसा मैं हूँ वैसे ही सब जीव हैं, जैसे मुझे दु:ख अनिष्ट है वैसे ही सब जीवों को अनिष्ट है, जैसे पैर में काँटा चुभने से मुझे वेदना होती है वैसे ही सब जीवों को होती है, उसने जीवों के प्रति सम्यक् दृष्टि की उपलब्धि कर ली। वह 'सर्वभूतात्मभूत' कहलाता है । Jain Education International १- ( क ) अ० खू० पृ० ६२: सुवणा जयणाए सुवेज्जा । (ख) जि० पु० पू० १६० : एवं निद्दामोक्खं करेमाणो आउंटणपसारणाणि पडिलेहिय पमज्जिय करेज्जा । (ग) हा० टोप० १५७ : यतं स्वपेत् समाहितो रात्रौ प्रकामशय्यादिपरिहारेण । (क) अ० चू० पृ० ६२: दोसवज्जितं भुंजेज्ज । (ख) जि० ० पृ० १६० एवं दोरावज्जियं गुंजेज्जा । (ग) हा० टी० प० १५७ : यतं भुञ्जानः सप्रयोजनमप्रणीतं प्रतरसिंहभक्षितादिना । ३ - ( क ) अ० ० पृ० ६२: जहा 'चक्कसुद्धीए' भष्णिहिति तहा भासेज्जा । (ख) हा० टी० प० १५७ : एवं यतं भाषमाणः साधुभाषया मृदुकालप्राप्तम् । ४ क अ० ८० पृ० ६३ : सव्वभूता सच्चजीवा तेसु सव्वभूतेषु अप्पभूतस्स जहा अप्पाणं तहा सब्वजीवे पासति, 'जह मम दुक्खं अ एवं सत्ताणं' ति जाणिण ण हित एवं सम्म विद्वाणि भूतानि भवति तस्य (ब) ० ० ० १६० सम्भूतापीय तु सम्बभूतेषु अप्यभूतो कहं ? जहा मम दृव अइह एवं सम्ब जीवतिकाउं पीडा णो उप्पायइ, एवं जो सव्वभूएस अप्पभूतो तेण जीवा सम्मं उवलद्धा भवंति, भणियं च "कट्ठेण कंटएण व पादे विद्वस्स वेदणा तस्स i जा होइ अगेव्वाणी पायव्वा सव्वजीवाणं ||" (ग) हा० टी० प० १५७ सर्वभूतेष्यात्मभूतः सर्वभूतात्मभूतोय आत्मवत् सर्वभूतानि पश्यतीत्यर्थः तस्येयं सम्यग् -- बीसरा- गोक्तेन विधिना भूतानि पृथिव्यादीनि पश्यतः सतः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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