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________________ जीवणिया ( षड्जीवनिका ) १६१ अध्ययन ४ : श्लोक ८ टि०१३१-१३४ यही जिज्ञासा इस श्लोक में गुरु के सामने प्रकट हुई। इस श्लोक की तुलना गीता के उस श्लोक से होती है जिसमें समाधिस्थ स्थितप्रज्ञ के विषय में पूछा गया है- १३१. श्लोक ८ : स्थितप्रज्ञस्य का भाषा, समाधिस्थस्य स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत श्लोक ८: अनगार कैसे चले ? कैसे बेठे ? आदि प्रश्नों का उत्तर इस श्लोक में है । श्रमण भगवान् महावीर जब भी कोई उनके समीप प्रव्रज्या लेकर अनगार होता तो उसे स्वयं बताते इस तरह चलना, इस तरह खड़ा रहना, इस तरह बैठना, इस तरह सोना, इस तरह भोजन करना, इस तरह बोलना आदि। इन बातों को सीख लेने से जैसे अनगार जीवन की सारी कला को सीख लेता है ऐसा उन्हें लगता। अपनी उत्तरात्मक वाणी में भगवान् कहते हैं-यतना से चल, यतना से खड़ा हो, यतना से बैठ, यतना से सो, यतना से भोजन कर, यतना से बोल । इससे अनगार पाप कर्मों का बंध नहीं करता और उसे कटु फल नहीं भोगने पड़ते । श्लोक ७ और ८ के स्थान में 'मूलाचार' में निम्न श्लोक मिलते हैं : केशव । किम् ॥ कधं चरे कधं चिट्ठे कधमासे कधं सये । कथं भुंजेज्ज भासिज्ज कथं पावं ण बज्झदि ॥ १०१२ जदं चरे जदं चिट्ठे जदमासे जदं सये । अ० २ : ५४ जदं भुंजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झई ।। १०१३ यतं तु परमाणस्स बास्स भिक्खुणो गवं ण वदे सम्म पौराणं च विषयदि ।। १०१४ क १३२. यतनापूर्वक चलने ( जयं चरे * ) : ): यतनापूर्वक चलने का अर्थ है - ईर्यासमिति से युक्त हो त्रसादि प्राणियों को टालते हुए चलना । पैर ऊँचा उठाकर उपयोगपूर्वक चलना । युग प्रमाण भूमि को देखते हुए शास्त्रीय विधि से चलना ? Jain Education International १३३. यतनापूर्वक खड़े होने ( जयं चिट्ठे ) : यतनापूर्वक खड़े होने का अर्थ है— कूर्म की तरह गुप्तेन्द्रिय रह, हाथ, पैर आदि का विक्षेप न करते हुए खड़े होना । १३४. यतनापूर्वक बैठने ( जयमासे ) : यतापूर्वक बैठने का अर्थ है- हाथ, पैर आदि को बार-बार संकुचित न करना या न फैलाना । ४ (क) अ० चू० पृ० ६२ : एवं आसेज्जा पहरमत्तं । (ख) जि० १- नाया० सू० ३१ पृ० ७६: एवं देवाणुप्पिया ! गंतव्वं एवं चिट्ठियन्वं, एवं णिसीयव्वं, एवं तुयट्टियव्वं एवं भुंजियब्वं, भासियत्वं । २ (क) अ० चू० पृ० ६२ : जयं चरे इरियासमितो दट्ठूण तसे पाणे "उद्धट्टु पादं रीएज्जा०" एवमादि । (ख) जि० चू० पृ० १६० जयं नाम उवउत्तो जुगतरदिट्ठी दट्ठूण तसे पाणे उद्धट्टुपाए रीएज्जा । (ग) हा० टी० प० १५७ : यतं चरेत् सूत्रोपदेशे नेर्यासमितः । ३ (क) अ० चू० पृ० १२ : जयमेव कुम्मो इव गुतिदितो चिट्ठज्जा । (ख) वि० ० ० १६०८ एवं जय कुवंती कुम्मो व बुतिदिओ चिटु वा । (ग) हा० डी० १० १७५ यतं तिष्ठेत् समाहितो हस्तपादादविक्षेपेण । ० चू० पृ० १६० : एवं आसज्जावि । (ग) हा० डी० १० १५७ यतमासीत उपयुक्त आनाद्यकरणेन । समयसाराधिकार १० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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