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दसवेआलिये ( दशवेकालिक )
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अध्ययन ४
श्लोक ७ टि० १२६-१३० भोजन विषयक इन या ऐसे ही अन्य नियमों का उल्लंघन तदुद्विषयक अयतना है । जो बिना प्रयोजन आहार का सेवन करता है, प्रणीत आहार करता है तथा काक-शृगाल आदि की तरह खाता है वह अयतनाशील है' ।
बोलने के नियम इस प्रकार हैं-चुगली न खाये; मृपाभाषा न बोले; जिससे दूसरा कुपित हो वैसी भाषा न बोले, ज्योतिष, मंत्र, यंत्र आदि न बताए; कर्कश, कठोर भाषा न बोले; सावद्य अथवा सावद्यानुमोदिनी भाषा न बोले; जो बात नहीं जानता हो उसके विषय में निश्चित भाषा न बोले ।
बोलने के विषय में इन तथा ऐसे ही अन्य नियमों का उल्लंघन तद्विषयक अयतना है। गृहस्थ-भाषा का बोलना, वैर उत्पन्न करने वाली भाषा का बोलना आदि भाषा सम्बन्धी अयतना है ।
जो साधु चलने, खड़ा होने, बैठने, आदि की विधि के विषय में जो उपदेश और आज्ञा सूत्रों में हैं उनके अनुसार नहीं चलता और उन आज्ञाओं का उल्लंघन या लोप करता है वह अयतनापूर्वक चलने, खड़ा होने, बैठने, सोने, भोजन करने और बोलने वाला कहा जाता है । एक के ग्रहण से जाति का ग्रहण कर लेना चाहिए - यह नियम यहाँ भी लागू है। यहाँ केवल चलने, खड़ा होने आदि का ही उल्लेख है, पर साधु जीवन के लिए आवश्यक भिक्षा-चर्या, आहार- गवेषणा, उपकरण रखना, उठाना, मल-मूत्र विसर्जन करना आदि अन्य क्रियाओं के विषय में भी जो नियम सूत्रों में लिखित हैं उनका उल्लंघन करने वाला अयतनाशील कहा जायेगा I
१२. लोक (१-६ ) :
अगस्त्य चूर्णि में 'चरमाणस्स' और 'हिंसओ' पष्ठी के एकवचन तथा 'वज्झइ' - अकर्मक क्रिया के प्रयोग हैं । इसलिए इन छः श्लोकों का अनुवाद इस प्रकार होगा
१ - अयतन। पूर्वक चलने वाले, त्रस और स्थावर जीवों की घात करने वाले व्यक्ति के पाप कर्म का बंध होता है, वह उसके लिए कटु फल वाला होता है ।
२- अनापूर्वक खड़ा होने वाले, बस और स्थावर जीवों की पात करने वाले व्यक्ति के पापकर्म का बंध होता है, वह उसके लिए कटु फल वाला होता है ।
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३पूर्वक बैठने वाले इस और स्थावर जीवों की बात करने वाले व्यक्ति के पाप-कर्म का बंध होता है, वह उसके लिए कटु फल वाला होता है ।
४- अपनापूर्वक सोने वाले जस और स्थावर जीवों की घात करने वाले व्यक्ति के पाप कर्म का बंध होता है, वह उसके लिए
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कटु फल वाला होता है ।
५- अयतनापूर्वक भोजन करने वाले, त्रस और स्थावर जीवों की घात करने वाले व्यक्ति के पाप कर्म का बंध होता है, वह उसके लिए कटु फल वाला होता है ।
६ -- अयतनापूर्वक बोलने वाले, त्रस और स्थावर जीवों की घात करने वाले व्यक्ति के पाप कर्म का बंध होता है, वह उसके लिए कटु फल वाला होता है ।
इलोक ७:
१३०. श्लोक ७:
जब शिष्य ने सुना कि अयतना से चलने, खड़े होने आदि से जीवों की हिंसा होती है, पाप-बंध होता है और कटु फल मिलता है, तब उसके मन में जिज्ञासा हुई - अनगार कैसे चले ? कैसे खड़ा हो ? कैसे बैठे ? कैसे बोले ? जिससे कि पाप कर्म का बंधन न हो ।
१ चू०
(क) अ० ० ० ९२: असुरसुरादि काक- सियासत एवमादि।
(ख) जि० सू० पृ० १५९ अजय काय सिगालखवाईहि मुंबई तं च स
एवमादि
(ग) हा० डी० प० १५७ अवतं भुञ्जानो निष्प्रयोजनं प्रणीतं काकगालभवितादिना वा ।
२ (क) अ० चू० पृ० ६२ : तं पुण सावज्जं वा ढड्ढरमादीहि वा ।
(ख) जि० चू० पृ० १५६ : अजयं गारत्थियभासाहि मासई ढड्डूरेण वेरतियासु एवमादिसु । (ग) हा० टी० प० १५७ : अयतं भाषमाणो गृहस्थभाषया निष्ठुरमन्तरभाषादिना वा ।
३ - (क) अ० चू० पृ० ६२ : अजयं अपयतेणं ।
(ख) जि० चू० पृ० १५८ : अजयं नाम अणुवए सेणं । (ग) हा० डी० ० १५६ बयतम् अनुपदेशेनासूत्राला इति ।
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