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छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका )
१५६
श्लोक १-६ :
१२८. यतनापूर्वक चलनेवाला प्रयतनापूर्वक बोलनेवाला ( श्लोक १-६),
सूत्र १८ से २३ में प्राणातिपात विरमण महाव्रत के पालन के लिए पृथ्वीकायादि जीवों के हनन की क्रियाओं का उल्लेख करते हुए उनसे बचने का उपदेश है । शिष्य उपदेश को सुन उन क्रियाओं को मन, वचन, काया से करने कराने और अनुमोदन करने का यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान करता है ।
जीव हिंसा की विविध क्रियाओं के त्याग प्रत्याख्यान के साथ-साथ जीवन व्यवहार में यतना ( सावधानी ) की भी पुरो आवश्यकता है । अयतनापूर्वक चलने वाला, खड़ा होने वाला, बैठने वाला, भोजन करने वाला, सोने वाला, बोलने वाला हिंसा का भागी होता है और उसको कैसा फल मिलता है, इसी का उल्लेख श्लोक २ से ६ तक में है ।
अध्ययन ४ श्लोक १६ टि० १२८ :
साधु के लिए चलने के नियम इस प्रकार हैं- वह धीरे-धीरे युग-प्रमाण भूमि को देखते हुए चले; बीज, घास, जल, पृथ्वी, त्रस आदि जीवों का परिवर्जन करते हुए चले; सरजस्क पैरों से अंगार, छाई, गोबर आदि पर न चले वर्षा, कुहासा गिरने के समय न चले; जोर से हवा बह रही हो अथवा कीट-पतंग आदि सम्पातिम प्राणी उड़ते हों उस समय न चले; वह न ऊपर देखता चले, न नीचे देखता चले, न बातें करता चले और न हँसते हुए चले। वह हिलते हुए तख्ते, पत्थर, ईंट पर पैर रख कर कर्दम या जल के पार न हो ।
चलने सम्बन्धी इन तथा ऐसे ही अन्य इर्या समिति के नियमों व शास्त्रीय आज्ञाओं का उल्लंघन तद्विषयक अयतना है'।
खड़े होने के नियम इस प्रकार हैं- सचित्त भूमि पर खड़ा न हो; जहाँ खड़ा हो वहाँ से खिड़कियों आदि की ओर न झाँके; बड़े-बड़े हाथ-पैरों को असमाहित भाव से न हिलाये लाए पूर्ण संयम से खड़ा रहे हरित, उदक, उति तथा कपर हो
खड़े होने सम्बन्धी इन या ऐसे ही अन्य नियमों का उल्लंघन तद्विषयक अयतना है ।
बैठने के नियम इस प्रकार हैं- सचित्त भूमि या आसन पर न बैठे; बिना प्रमार्जन किए न बैठे; गलीचे, दरी आदि पर न बैठे; गृहस्थ के घर न बैठे। हाथ, पैर, शरीर और इन्द्रियों को नियंत्रित कर बैठे। उपयोगपूर्वक बैठे ।
बैठने के इन तथा ऐसे ही नियमों का उल्लंघन तद्विषयक अथतना है। बैठे-बैठे हाथ-पैरादि को अनुपयोगपूर्वक पसारना, संकोचना आदि अयतना है ।
सोने के नियम इस प्रकार हैं-बिना प्रमार्जित भूमि, शय्या आदि पर न सोये; अकारण दिन में न सोये; सारी रात न सोये, प्रकाम निद्रा सेवी न हो ।
सोने के विषय में इन नियमों का उल्लंघन
भोजन के नियम इस प्रकार हैं-सचित्त, अर्द्धपक्व न ले; नही बोड़ा खाये संग्रह करे शिकत आदि से न औद्देशिक, न में ग्रहण करे; गृहस्थ के बरतन में भोजन न करे आदि ।
है।
सचित्त पर रखी हुई वस्तु न ले; स्वाद के लिए न खाये; प्रकामभोजी संविभाग कर खाये संतोष के साथ साथ पूठान छोड़े मित मात्रा ;
१ – (क) अ० चू० पृ० ९१ : चरमाणस्स गच्छमाणस्स, रियासमितिविरहितो सत्तोपघातमातोवघातं वा करेज्जा ।
(ख) जि० चू० पृ० १५८ : अजयं नाम अणुवएसेणं, चरमाणो नाम गच्छमाणो ।
(ग) हा० टी० प० १५६ अयतम् अनुपदेशेनासूत्राज्ञया इति क्रियाविशेषणमेतत् अयतमेव चरन् ईयसमितिमुल्लङ्घ्य ।
२ (क) अ० ० पृ० ६२ : आसमाणो उवेट्ठो सरीरकुरुकुतादि ।
(ख) जि० पू० पृ० १५६ ग्रासमणो नाम उसी तत्व सरीराकुणावरे हत्या विभ तो सो उवरोधे वट्टइ ।
(ग) हा० टी० १० १२७ अवतमासीनोनित अनुपयुक्त आ
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३ (क) अ० चू० पृ० १२: आउंटण-पसारणादिसु एडिलेहणन्पमज्जणमकरितस्स पकाम णिकाणं रति दिदा य सुयन्तस्स । (ख) जि० ० चू० पृ० १५६ : अजपंति आउंटेमाणो य ण पडिलेहइ ण पमज्जइ, सव्वराई सुबइ, दिवसओवि सुयइ, पगामं निगमं वा सुवई ।
(ग) हा० टी० १० १५७ अयतं स्वपन् जसमाहितो दिया प्रकाशदिवा)।
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