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दतवेलियं ( दशवं कालिक )
१५८ अध्ययन ४ : श्लोक १ टि० १२४-१२७ कहलाता है। यह नियम है कि एक के ग्रहण से जाति का ग्रहण होता है। अतः अवशेष परितापना, क्लामना आदि को भी संघात के साथ ग्रहण कर लेना चाहिए। संघात के बाद का आदि शब्द लुप्त समझना चाहिए।
श्लोक १
:
१२४ र स्वार ( पाणभूवाई "प्राणाद्वित्रिचतुः प्रोक्ता, भूतास्तु तरवः स्मृताः " इस बहु प्रचलित श्लोक के अनुसार दो, तीन और चार इन्द्रिय वाले जीव प्राण तथा तरु ( या एक इन्द्रिय वाले जीव ) भूत कहलाते हैं। अगस्त्यसिंह स्थविर ने प्राण और भूत को एकार्थक भी माना है तथा वैकल्पिक रूप में प्राण की त्रस और भूत को स्थावर अथवा जिनका श्वास उच्छ्वास व्यक्त हो उन्हें प्राण और शेष जीवों को भूत माना है' |
ख
१२५. हिंसा करता है ( हिसई ख ) :
'अयतनापूर्वक चलने, खड़ा होने आदि से साधु प्राण-भूतों की हिंसा करता है'-- इस वाक्य के दो अर्थ हैं - (१) वह वास्तव में ही जीवों का उपमर्दन करता हुआ उनकी हिंसा करता है और (२) कदाचित् कोई जीवन भी मारा जाय तो भी वह छह प्रकार के जीवों की हिंसा के पाप का भागी होता है। प्रमत्त होने से जीव-हिंसा हो या न हो वह साधु भावत: हिंसक है' ।
)
ग
१२६. उससे पापकर्म का बंध होता है ( बंधइ पावयं कम्म ) :
अयतनापूर्वक चलने वाले को हिंसक कहा गया है भले ही उसके चलने से जीव मरे या न मरे । प्रमाद के सद्भाव से उसके परिणाम अकुशल और अशुभ होते हैं। इससे उसके क्लिष्ट ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का बंध होता रहता है।
कर्म दो तरह के होते हैं (१) पुण्य और (२) पाप । शुभ योगों से पुण्य कर्मों का बंध होता है और अशुभ से पाप कर्मों का । कर्मज्ञानावरणीय आदि बाठ हैं। उनके स्वभाव भिन्न-भिन्न है अशुभ योगों से साधु आठों ही पाप-कर्म-कृतियों का बंध करता है। आत्मा के असंख्य प्रदेश होते हैं। अशुभ क्रियाओं से राग-द्वेष के द्वारा खिंच कर पुद्गल - निर्मित कर्म इन प्रदेशों में प्रवेश पा वहाँ रहे हुए पूर्व कर्मों से संबद्ध हो जाते हैं एक-एक प्रदेश को भाठ ही कर्म आवेष्टरिवेष्टित कर लेते है यही कहलाता है । पाप कर्म का बंध अर्थात् अत्यन्त स्निग्ध कर्मों का उपचयसंग्रह इसका फल बुरा होता है ।
का
१२७. कटु फल वाला होता है ( होइ कडुयं फलं घ ) :
प्रमादी के मोहादि हेतुओं से पाप कर्मों का बंध होता है। पाप कर्मों का विपाक बड़ा दारुण होता है। प्रमत्त को कुदेव, कुमनुष्य आदि गतियों की ही प्राप्ति होती है। वह दुर्लभ बोधि होता है।
१ (क) अ० चू० पृ० ६१ परिताब परोप्परं यत्तपीडनं संघात । एत्व आदिसह लोपो संगट्टण-परितावणोद्द्वणाणि सूतिज्जंति । परतो ताणं संपिडणं, एगहगहराईयातिका
साथ परिता
४.
(च) मि० ५० ५० १
वकिलवणादिभेदा गहिया । (ग) इ० टी० १० १५६
२ (क) ० ० ० ६१ताथि पाचाणि हवा पाणा तता भूता पावरा, कुसासनीसासा पाणा सेसा भूता ।
(स) ० ० ० १५० (ग) ६० टी० प० १५६ (क) अ० चू० पृ० ९१ : (ख) हा० टी० प० १५६
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परस्प
1
तसा महणं सत्ताणं विविहिंपणारेह प्राणिनो द्वोन्प्रवादयः भूतानि एकेन्द्रियास्तानि । तो सारेमाणस्स ।
प्रमादानाभोगाभ्यां व्यापादयतीति भावः तानि च हिंसन् ।
(क) अ० चू० पृ० ३१ : पाच कन्, बमति एक्केको जीववदेसो अटुहि कम्मपगडीहि आवेढिज्जति, पावगं कम्मं अस्साय वेयमिज्जति । अजयनादो हिसा ततो पावोवचतो ।
(च) ० ० ० १२
पदे यह कम्मी आवेदियपरिवेटिव करेति पावनं नाम
भ
(च) ० ० ० १५६
दिनारीवादि।
५ -- (क) अ० ० पृ० ६१: तरस फलं तं से होति कहुयं फलं कडुगवियागं कुगति-- अबोधिलाभनिव्वत्तगं । (ख) जि० ० पृ० १५६ : कयं फलं नाम कुदेव तकुषाणुसत्तनिव्यत्तकं पमत्तस्स भवइ ।
(ग) हा० डी० ० १५६ते तत्तचारिणो भवतस्वारोऽलाक्षणिक अशुभफलं भवति मोहादिया विषाकारणमित्यर्थः ।
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