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________________ छज्जीवणिया (षड्जोबनिका) १५७ अध्ययन ४ : सूत्र २३ टि० ११६-१२३ ११६. गोच्छग ( गोच्छगंसि ) : - इसका अर्थ है-- एक वस्त्र जो पटल (पात्र को ढांकने के वस्त्र) को साफ करने के काम आता है।' ११७. दंडक ( दंडगंसि ) : ओघनियुक्ति (७३०) में औपग्रहिक (विशेष परिस्थिति में रखे जाने वाले) उपधियों की गणना है। वहाँ दण्ड का उल्लेख है। इसकी कोटि के तीन उपधि और बतलाए गये हैं -यष्टि, वियष्टि और विदण्ड। यष्टि शरीर-प्रमाण, वियष्टि शरीर से चार अंगुल कम, दण्ड, कंधे तक और विदण्ड कुक्षि (कोख) तक लम्बा होता है। यवनिका (पर्दा) बांधने के लिए यष्टि और उपाश्रय के द्वार को हिलाने के लिए वियष्टि रखी जाती थी। दण्ड ऋतुबद्ध (चातुर्मासातिरिक्त) काल में भिक्षाटन के समय पास में रखा जाता था और वर्षाकाल में भिक्षाटन के समय विदण्ड रखा जाता था। भिक्षाटन करते समय बरसात आ जाने पर उसे भीगने से बचाने के लिए उत्तरीय के भीतर रखा जा सके इसलिए वह छोटा होता था। वृत्ति में नालिका का भी उल्लेख है। उसकी लम्बाई शरीर से चार अंगुल अधिक बतलाई गई है। उसका उपयोग नदी को पार करते समय उसका जल मापने के लिए होता था। व्यवहार सूत्र के अनुसार दण्ड रखने का अधिकारी केवल स्थविर ही है। ११८. पीठ, फलक ( पीढगंसि वा फलगंसि वा ) : पीठ-काठ आदि का बना हुआ बैठने का बाजौट । फलक-लेटने का पट्ट अथवा पीढ़ा । ११६. शय्या या संस्तारक (सेज्जसि वा संथारगंसि वा ) : शरीर-प्रमाण बिछौने को शय्या और ढाई हाथ लम्बे और एक हाथ चार अंगुल चौड़े बिछौने को संस्तारक कहा जाता है। १२०. उसी प्रकार के अन्य उपकरण पर ( अन्नयरंसि वा तहप्पगारे उवगरणजाए): ___ साधु के पास उपयोग के लिए रही हुई अन्य कल्पिक वस्तुओं पर । 'तहप्पगारे उबगरणजाए'-इतना पाठ चूणियों में नहीं है। १२१. सावधानी पूर्वक ( संजयामेव ) : कीट, पतंग आदि को पीड़ा न हो इस प्रकार । यतनापूर्वक, संयमपूर्वक । १२२. एकान्त में ( एगंतं ): ऐसे स्थान में जहाँ कीट, पतङ्गादि का उपघात न हो। १२३. संघात ( संघायं ): उपकरण आदि पर चढ़े हुए कीट, पतंग आदि का परस्पर ऐसा गात्रस्पर्श करना, जो उन प्राणियों के लिए पीड़ा रूप हो, संघात १- ओ० नि० ६६५ : होइ पमज्जणहेडं तु, गोच्छओ भाणवत्थाणं । २-ओ० नि० ७३० वृत्ति : अन्या नालिका भवति आत्मप्रमाणाच्चतुभिरंगुलैरतिरिक्ता, तत्थ नालियाए जलथाओ गिज्झइ । ३-ब्ध०८.५ पृ० २६ : थेराण थेरभूमिपत्ताणं कप्पइ दण्डए वा .... . . ४ --- अ० चू० पृ० ६१ : पीढगं कट्ठमतं छाणमतं वा । फलग जत्थ सुप्पति चंपगपट्टाधिपेढणं वा । ५.--- (क) अ० ०० पृ० ६१ : सेज्जा सव्वंगिका । संथारगो यऽड्ढाइज्जहत्थाततो सचतुरंगुलं हत्थं विस्थिष्णो । (ख) जि० चू० पृ० १५८ : सेज्जा सब्बंगिया, संथारो अड्ढाइज्जा हत्था आयतो हत्थं सच उरंगुलं विच्छिण्णो । ६-(क) अ० चू० पृ० ६१ : अण्णतरवपणेण तोवग्गहियमणेगागारं भणितं । (ख) जि० चू० पृ० १५८ : अप्णतरग्गहणेण बहुविहस्स तहप्पगारस्स संजतपायोग्गस्स उयगरणस्स गहणं कयंति । (ग) हा० टी० ५० १५६ : अन्यत रस्मिन् वा तथाप्रकारे साधुक्रियोपयोगिनि उपकरणजाते। ७ -- (क) अ० चू० पृ० ६१ : संजतामेव जयणाए जहा ण परिताविज्जति । (ख) जि० चू० पृ० १५८ : संजयामेवत्ति जहा तस्स पीडा ण भवति तहा घेत्तूर्ण । (ग) हा० टी०प० १५६ : संयत एव सन् प्रयत्नेन वा। ८-(क) अ० चू० पृ० ६१ : एकते जत्थ तस्स उवधातो ण भवति तहा अवणेज्जा। (ख) जि० चू० पृ० १५८ : एगते नाम जत्थ तस्स उवघाओ न भवइ तत्थ । (ग) हा० टी० पृ० १५६ : तस्यानुपघातके स्थाने । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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