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________________ दसवेलियं ( दशवैकालिक ) ७२ अध्ययन ३ श्लोक ४ टि०२८ अङ्गार, मुर्मुर, अर्चि, ज्वाला, अलात, शुद्ध-अग्नि और उल्का आ जाते हैं । 'समारम्भ' शब्द में सींचना, संघट्ट करना, भेदन करना, उज्ज्वलित करना, प्रज्वलित करना, बुझाना आदि सब भाव समाते हैं। अग्नि समारम्भ करने में कराना और अनुमोदन करना ये भाव भी सन्निहित हैं । भगवान् महावीर का कहना था – “पकाना, पकवाना, जलाना, जलवाना, उजाला करना या बुझाना आदि कारणों से तेजस्काय की हिंसा होती है। ऐसे सब कारण साधु-जीवन में न रहें ।" आचारांग सूत्र में इन विषय पर बड़ा गंभीर विवेचन है । वहाँ कहा गया है : "जो पुरुष अग्निकाय के जीवों के अस्तित्व का अपलाप करता है, वह अपनी आत्मा का अपलाप करता है । जो अपनी आत्मा का अपलाप करता है वह अग्निकाय के जीवों का अपलाप करता है । जो अग्नि के स्वरूप को जानता है वह असंयम के स्वरूप को जानता है और जो असंयम के स्वरूप को जानता है वह अग्नि के स्वरूप को जानता है । जो प्रमादी है, वह प्राणियों को दण्ड देनेवाला है। अग्निकाय का आरम्भ करनेवाले के लिए अहित का कारण है, अबोधि का कारण है। यह ग्रन्थ है, यह मोह है, यह मार है, यह नरक है ।" महात्मा बुद्ध ने अग्नि ताप का निषेध विशेष परिस्थिति में किया था। एक बार बौद्ध भिक्षु थोथे बड़े ठूंठ को जलाकर सर्दी के दिनों में अपने को तपा रहे थे । उसके अन्दर रहा हुआ काला नाग अग्नि से झुलस गया । वह बाहर निकल भिक्षुओं के पीछे दौड़ने लगा । भिक्षु इधर-उधर दौड़ने लगे । यह बात बुद्ध तक पहुँची । बुद्ध ने नियम दिया – “जो भिक्षु तापने की इच्छा से अग्नि जलायेगा, अथवा जलवायेगा, उसे पाचित्तिय का दोष होगा ।" इस नियम से रोगी भिक्षुओं को कष्ट होने लगा । बुद्ध ने उनके लिए अपवाद कर दिया। उक्त नियम के कारण भिक्षु आताप घर और स्नान घर में दीपक नहीं जलाते थे । बुद्ध ने समुचित कारण से अग्नि जलाने और जलवाने की अनुमति दी । आरामों में दीपक जलाये जाते थे* । महावीर का नियम था "शीत निवारण के लिए पास में वस्त्र आदि नहीं हैं और न घर ही है, इसलिए मैं अग्नि का सेवन करूँ - भिक्षु ऐसा विचार भी न करे ५।" "भिक्षु स्पर्शनेन्द्रिय को मनोज्ञ एवं सुखकारक स्पर्श से संहृत करे। उसे शीतकाल में अग्नि सेवन - शीत ऋतु के अनुकूल सुमदायी स्पर्श में आसक्त नहीं होना चाहिए।" उन्होंने कहा--"जो पुरुष माता और पिता को छोड़कर धमण व्रत धारण करके भी अनिकाय का समारंभ करते हैं और जो अपने लिए भूतों की हिंसा करते हैं, वे कुलधर्मी है।" "अग्नि को उत करने वाला प्राणियों की घात करता है और आग बुझाने वाला मुख्यतया अग्निकाय के जीवों की घात करता है। धर्म को सीख मेधावी पण्डित अग्नि का समारम्भ न करे। अग्नि का समारंभ करने वाला पृथ्वी, तृण और काठ में रहनेवाले जीवों का दहन करता है"।" १ दश० ४.२० तथा ८.८ । २ - प्रश्न० ( आलव द्वार) १.३ पृ० १३ : पयण-पयावण जलावण-विद्ध स हि अर्गाणि । ३- आ० १.६५, ६६,६८,७६,७८ : जे लोयं अभाइक्खइ से अत्ताणं अब्भाइक्खइ, जे अत्ताणं अभाइक्लइ से लोयं अब्भाइक्खइ । जे दोलोगसत्यस्स वेयन्ने से असत्यस्स खेयन्ने, जे असत्यस्स खेयन्ने से दीहलोगसत्यस्स खेयन्ने । जे पम गुणडीए से हु दंडे पयुच्चति । तं से अहियाए, तं से अबोहियाए । एस एस म एस लमारे, एस तु परए। ४— Sacred Books of the Buddhists vol. XI. Book of the Discipline part II. LVI. P.P. ५- उत्त० २.७ : न मे निवारणं अस्थि, छवित्ताणं न विज्जई । अहं तु सेवामि दद भवन चिन्ताए ॥ ६ - प्रश्न ० ( संवर-द्वार ) ५ : सिसिरकाले अंगारपतावणा य आयवनिद्वमउयसीयउ सिणलहुया य जे उउसुहफासा अंगसुहनिव्वुइकरा ते अन्नेसु य एवमादितेसु फासेसु मणुन्नभद्दएसु न तेसु समणेण सज्जियव्वं न रज्जियव्वं न गिज्भियव्वं न मुज्झिपव्वं । ७ - सू० १.७.५ : जे मायरं वा पियरं च हिच्चा, समणव्वए अर्गाणि समारभिज्जा । अहाहु से लोए कुसीलधम्मे, भूयाइ जे हिंसति आतसाते || ८- सू० १.७.६-७ : उज्जालओ पाण तिवातएज्जा, निव्वावओ अर्गाणि इतिवात एज्जा । तम्हा उ मेहावि समिक्ल धम्मं ण पंडिए अगणि समारभिज्जा ।। पुढवीवि जीवा आऊवि जीवा, पाणा य संपाइम संपयंति 1 संसदया कडुसमरिसता य एते दहे अगणि समारभते ॥ Jain Education International 398-400 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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