________________
खुड्डियायारकहा ( क्षुल्लिकाचार-कथा ) ७३ अध्ययन ३ : श्लोक ५ टि० २६
भगवान महावीर के समय में बड़े-बड़े यज्ञ होते थे । उनसे मोक्ष माना जाता था। उनमें महान् अग्नि-समारंभ होता था। महावीर ने उनका तीव्र विरोध किया था। उन्होंने कहा-"कई मूढ़ हुत-अग्नि-होम से मोक्ष कहते हैं। प्रात:काल और सायंकाल अग्नि का स्पर्श करते हुए जो हुत-होम से मुक्ति बतलाते हैं वे मिथ्यात्वी हैं। यदि इस प्रकार सिद्धि हो तो अग्नि का स्पर्श करने वाले कुम्हार, लुहार आदि की सिद्धि सहज हो जाए ! अग्नि-होम से सिद्धि माननेवाले बिना परीक्षा किये ही ऐसा कहते हैं। इस तरह सिद्धि नहीं होती । ज्ञान प्राप्त कर देखो-वस, स्थावर सब प्राणी सुखाभिलाषी हैं.....।"
श्लोक ५: २६. शय्यातरपिण्ड ( सेज्जायरपिंडं क):
'सेज्जायर' शब्द के संस्कृत रूप तीन बनते हैं-- शय्याकर, शय्याधर और शय्यातर । शय्या को बनाने वाला, शय्या को धारण करने वाला और श्रमण को शय्या देकर भव-समुद्र को तैरने वाला—ये क्रमशः इन तीनों के अर्थ हैं । यहाँ ‘शय्यातर' रूप अभिप्रेत है।
शय्यातर का प्रवृत्ति-लभ्य अर्थ है-वह गृह-स्वामी जिसके घर में श्रमण ठहरे हुए हों।
शय्यातर कौन होता है ? कब होता है ? उसकी कितनी वस्तुएँ अग्राह्य होती हैं ? आदि प्रश्नों की चर्चा भाष्य ग्रंथों में विस्तारपूर्वक है । निशीथ-भाष्य के अनुसार उपाश्रय का स्वामी अथवा उसके द्वारा संदिष्ट कोई दूसरा व्यक्ति शय्यातर होता है।
शय्यातर कब होता है ? इस विषय में अनेक मत हैं । निशीथ-भाष्यकार ने उन सबका संकलन किया है--
१-सू० १.७.१२ : ...."हुएण एगे पवयंति मोक्खं ॥ २- सू० १.७.१८ : हुतेण जे सिद्धिमुदाहरंति, सायं च पायं अणि फुसंता।
एवं सिया सिद्धि हवेज्ज तेसि, अणि फुसंताण कुकम्मिणंपि ॥ ३-सू० १.७.१६ : अपरिच्छ दिढेि ण हु एव सिद्धी, एहिंति ते घायमबुज्झमाणा ।
भूएहि जाण पडिलेह सातं, विज्जं गहाय तसथावरेहिं ।। ४-नि० भा० गा० २.४५-४६ : सेज्जाकर-दातारा तिण्णि वि जुगवं वक्खाणेति -
__ अगमकरणादगारं, तस्स हु जोगेण होति सागारी।
सेज्जा करणा सेज्जाकरो उ दाता तु तद्दाणा ॥ "अगमा" रुक्खा, तेहिं कतं "अगारं" घरं तेण सह जस्स जोगो सा सागरिउ ति भण्णति । जम्हा सो सिज्ज करेति तम्हा सो सिज्जाकरो भग्णति । जम्हा सो साहूणं सेज्जं ददाति तेण भण्णति सेज्जादाता। जम्हा सेज्जं पडमाणि छज्ज-लेप्पमादोहि धरेति तम्हा सेज्जाधरो अहवा-सेज्जादाणपाहण्णतो अप्पाणं णरकादिसु पडतं धरेति ति तम्हा सेज्जाधरो । सेज्जाए संरक्खणं संगोवणं, जेण तरति काउं तेण सेज्जातरो । अहवा–तत्थ वसहीए साहुणो ठिता ते वि सारक्खिउं तरति, तेण सेज्जा
दाणेण भवसमुद्र तरति ति सिज्जातरो। ५.--(क) अ० चू० पृ० ६१ : सेज्जा वसती, स पुण सेज्जादाणेण संसारं तरति सेज्जातरो, तस्स भिक्खा सेज्जातरपिंडो। (ख) जि० चू० पृ० ११३ : शय्या-आश्रयोऽभिधीयते, तेण उ तस्स य दाणेण साहणं संसार तरतीति सेज्जातरो तस्स पिंडो,
भिक्खत्ति वुत्तं भवइ । (ग) हा० टी०प० ११७ : शय्या-वसतिस्तया तरति संसारं इति शय्यातरः-साधुवसतिदाता, तत्पिण्डः । ६-हा० टी० ५० ११७ । ७-नि० भा० गा० ११४४ : सेज्जातरो पभू वा, पभुसंदिठ्ठो व होति कातन्वो। ८...नि. भा० गा० ११४६-४७ चू० : एत्थ णेगमणय-पक्खासिता आहु ।
एक्को भणति-अणुण्णविए उवस्सए सागारिओ भवति । अण्णो भणति -जता सागारियस्स उग्गहं पविठ्ठा । अण्णो भणति -जता अंगणं पविट्ठा । अण्णो भणति ---जता पाउग्गं तणडगलादि अणुणयवितं । अण्णो भणति-जता वसहिं पविठ्ठा ।
Jain Education Intemational
For Private & Personal use only
www.jainelibrary.org